“देश की प्रथम महिला केंद्रीय वित राज्य मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा और सिने स्टार ‘बिहारी बाबू’ शत्रुहन सिन्हा के पूर्वजों की धरती चंडी विधानसभा का अपना एक गौरवशाली ऐतिहासिक और राजनीतिक इतिहास रहा है। यहाँ कभी चीनी यात्री फाहियान नालंदा जाने के दौरान ढिबरा पर रूके थे। यहां गुप्त काल के कई प्राचीन अवशेष बिखरे पड़े हैं….”
एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क डेस्क। देश का प्रथम आम चुनाव 1952 में हुआ था, तब से मतदाता नेताओं के भाग्य विधाता बनते रहे हैं। मतदाताओं ने जहाँ इतिहास रचा, वहीं नेताओं ने अपने निर्वाचन क्षेत्र को एक पहचान दी।
यूँ तो देश में जब तक लोकतंत्र रहेगा, तब तक मतदाता ही नेताओं के भाग्य का फैसला करेंगे। अलबत्ता चुनाव के साथ एक दिलचस्प पहलू जुड़ा हुआ है परिसीमन आयोग, जिसके कलम की नोक से नेताओं और उनके निर्वाचन क्षेत्र के हाथों की लकीर बदलती रही है।
नतीजतन कई नेता अपने परंपरागत और प्रिय निर्वाचन क्षेत्र से हाथ धो बैठते हैं और उन्हें मजबूरन नये ठिकाने तलाश करने पड़ते हैं। जाहिर है ऐसे में विछोह का दर्द बरसों -बरस उन लाखों मतदाताओं और नेताओं को खलता रहता होगा। कुछ यहीं दर्द 10 साल बाद भी नालंदा के विलोपित चंडी विधानसभा क्षेत्र की जनता को सालता रहा है।
चंडी विधानसभा क्षेत्र के 58 वर्ष का राजनीतिक इतिहास 10 साल पहले मिट गया। वर्ष 2010 का विधानसभा चुनाव में चंडी का अस्तित्व खत्म हो चुका था। अपने से कई साल छोटे हरनौत विधानसभा का अंग बन कर रह रहा है।
कभी विधानसभा के साथ अनुमंडल का सपना देखने वाला चंडी अब सिर्फ़ प्रखंड तक में सिमटा हुआ है। 2009 का लोकसभा चुनाव में पूरी तरह विलोपित चंडी की सिर्फ यादें ही रह गई ।
चंडी विधानसभा के 58 साल के इतिहास में यहां से सिर्फ़ अब तक पांच विधायक ही निर्वाचित हुए। जिनमें दो एक ही परिवार से पिता-पुत्र शामिल है। जबकि तीसरे हरिनारायण सिंह एकमात्र ऐसे विधायक हैं, जिन्होंने चंडी और हरनौत दोनों में 1977 से अपनी बादशाहत बरकरार रखे हुए हैं।
1952 में अस्तित्व में आएं चंडी विधानसभा के पहले विधायक धनराज शर्मा थे, जो चंडी के बेलछी के थे। जिन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के मेजर देवलाल महतो को हराया था। 1957 में कांग्रेस के ही देवगण प्रसाद ने विजय पताका फहराया था।
1962 से लेकर चंडी विधानसभा की राजनीतिक एक ही जगह जाकर टिक गई। 1962से 1972 तक बोधीबिगहा के डॉ रामराज सिंह का चार बार लगातार वर्चस्व बना रहा। श्री सिंह नालंदा के पहले ऐसे शख्स थे, जिन्होंने अमेरिका जाकर अपनी पढ़ाई पूरी की थी।
1977 में हरिनारायण सिंह ने जनता पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ा और उन्होंने केश्वर यादव को 16 हजार मतों से हराकर चुनाव जीतकर कांग्रेस का किला ध्वस्त कर दिया। लेकिन 1980 के चुनाव में डॉ रामराज सिंह ने पुनः वापसी की और हरिनारायण सिंह अपनी सीट बचा नहीं पाएं।
1982 में डॉ रामराज सिंह के निधन के बाद 1983 में हुए उपचुनाव में डॉ रामराज सिंह की विरासत को संभालने उनके पुत्र अनिल कुमार चुनाव मैदान में आए। इस बार उनका मुकाबला हरिनारायण सिंह से था। अनिल सिंह को अपने पिता की सहानुभूति लहर का फायदा नहीं मिला और हरिनारायण सिंह ने जीत हासिल कर ली।
1983 में केरल के बाद बिहार के चंडी विधानसभा क्षेत्र के कई मतदान केंद्रों पर पहली बार ईवीएम का इस्तेमाल किया गया था।
1985 के चुनाव में अनिल कुमार कांग्रेस से पहली बार विधायक बने। लेकिन 1990 में हरिनारायण सिंह ने एक बार फिर वापसी की। इस बार उन्हें लालू प्रसाद मंत्रिमंडल में कृषि राज्य मंत्री बनाया गया।
जब 1994 में जार्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार ने समता पार्टी का गठन किया तब अनिल कुमार समता पार्टी में शामिल हो गए। 1995 के विधानसभा चुनाव में कड़े मुकाबले में अनिल कुमार ने अपने प्रतिद्वंद्वी हरिनारायण सिंह को हराने में कामयाब रहे।
वर्ष2000 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले हरिनारायण सिंह राजद छोड़ कर जदयू में शामिल हो गए। हरिनारायण सिंह का जदयू में आना अनिल कुमार के लिए अभिशाप बन गया। जहाँ से 19 साल बाद भी उन्हें कामयाबी हासिल नहीं हुई।
2005 में जदयू के हरिनारायण सिंह ने आखिरी बार चंडी विधानसभा क्षेत्र से जीत कर अपराजेय बने रहने का रिकॉर्ड बना डाला। इससे पहले डॉ रामराज सिंह 5 बार चुनाव जीत चुके थे। जबकि चंडी विधानसभा क्षेत्र से सबसे ज्यादा छह बार हरिनारायण सिंह विधायक रहे।
जब 2009 में परिसीमन आयोग की भेंट चढ़े चंडी विधानसभा 2010 में हरनौत विधानसभा का अंग बना तो हरिनारायण सिंह को ही टिकट मिला, जहाँ उन्होंने सातवीं जीत हासिल की। जहाँ उन्हें नीतीश मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री बनने का सौभाग्य मिला। 2015 का विधानसभा चुनाव उनके राजनीतिक जीवन की आठवीं जीत थी।
नालंदा के ऐतिहासिक और राजनीतिक जमीं चंडी का एक गौरवशाली राजनीतिक अतीत रहा है। लेकिन दस साल पहले परिसीमन आयोग ने चंडी विधानसभा क्षेत्र को राजनीतिक मानचित्र से अलग कर दिया।
सबसे दुखद पहलू यह है कि इस लोकसभा चुनाव के दौरान किसी भी राजनीतिक दल का एक भी नेता वोट मांगने के लिए नहीं पहुँचा। कभी चुनाव के दौरान गुलजार रहने वाला चंडी अब राजनीतिक दलों के लिए ‘अछूत’ बन गया।