“यह तस्वीर है एक समाज के संवेदनहीन हो जाने की। कहने को पिछले 15 साल से बिहार में विकास का बहार है,बाढ़ आई हुई है। विकास की आंधी चल रही है। लेकिन गिरानी जैसे लोगों के पास विकास नहीं पहुचंती है। सरकार की लाभकारी योजनाओं की दरकार ऐसे लोगों को ज्यादा है। लेकिन सिस्टम के आंखों का पानी भर चुका है। उनमें हया शर्म और लज्जा बची कहाँ है….?
नालंदा दर्पण डेस्क। कहते हैं किस उम्र तक पढ़ा जाए,और किस उम्र तक कमाया जाएं,यह शौक नहीं हालात तय करते है। गुलाम भारत में जन्मे 81 साल के गिरानी ठठेरा को आज भी अपने काम से आजादी नहीं मिल पाई है।
चंडी प्रखंड के चंडी डीह के रहने वाले गिरानी ठठेरा अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव पर भी बूढ़ी हड्डियों के बल पर कंधे पर बर्तन लादे गांव-गांव घूमकर बर्तन बेचकर 81 वर्षीय यह बुजुर्ग अपना और अपनी बेटी का पेट पाल रहे हैं।
गिरानी ठठेरा हर सुबह अपने घर से अपने कंधे पर बर्तन का बोझ लादे निकलते हैं। ताकि उनके घर का चूल्हा जल सके।वे चंडी के योगिया,कोरूत दस्तूरफर, मुड़लाविगहा, पड़री, बहादुरपुर,गदनपुरा आदि गांवों में फेरी लगाकर अपने बर्तनों को बेचने का काम कर रहे हैं।
वे पहले घर पर ही बर्तन बेचते थे। लेकिन जब आधुनिकता की होड़ में अल्युमिनियम की बर्तनों की बिक्री कम होने लगी तो पिछले दस साल से वह अपने कंधे पर बर्तन उठाएं जिस्म को जबरन धकेलते गांव की ओर निकल पड़े।
पिछले दस सालों से वह बर्तनों की फेरी लगा रहे हैं। कभी बर्तन बिकते भी और कभी नहीं भी। कभी कभार एका बर्तन बिक भी गये तो मुनाफे के दस बीस रुपए से गुजारा करना मुश्किल हो जाता है।
एक तरफ लोग गिरानी जैसे लोगों से समान खरीदते वक्त मोल-भाव करते हैं तो दूसरी तरफ शॉपिंग मॉलो में, दुकानों में मुंह मांगी कीमत अदा करते हैं।
गिरानी ठठेरा की जिंदगी के इस कठिनतम समय में पत्नी भी सहारा बनती लेकिन उसका भी कुछ साल पहले निधन हो चुका है। संतान के रूप में उनकी चार बेटियां है। जिनमें तीन की शादी हो चुकी है। एक छोटी बेटी अभी अविवाहित हैं।
उनके परिवार का कोई भी सदस्य ऐसा नहीं है, जो इस मुश्किल वक्त में उनका हाथ बंटा सकें। उनके समक्ष अपने घर की जर्जर गाड़ी को चलाने के साथ बेटी की शादी की असीम चिंता है।
गिरानी ठठेरा जैसे लोग सरकारी जुबान में उस लकीर के नीचे के बाशिंदे हैं,जिसे गरीबी की रेखा कहा जाता है। लेकिन आजादी के 74 साल बाद भी इस रेखा को हमारे हुक्मरान नहीं मिटा सके। उनके सर पर आज भी एक अदद छत नहीं है।
गिरानी जैसे लोगों के लिए यहां हर सुबह नाउम्मीदी लेकर उगता है और उम्मीदें लेकर डूब जाता है,ऐसे सूरज का भी ये क्या करें जो रोटी भी सेंक नहीं सकती है।
जब इंसानियत दुःख तकलीफ से गुजरती है,तब कोई समाजसेवी, कोई समूह, कोई उदारमना व्यक्ति मदद को भी आगे नहीं आते हैं। लेकिन समाज में आज भी कुछ ऐसे संवेदनशील लोग हैं जो इंसानियत को जिंदा रखे हुए हैं।
सोशल मीडिया पर “चंडी चैम्पियन” से एक पेज चलाने वाले लोगों ने गिरानी ठठेरा की मदद के लिए समाज से मदद की गुहार लगाई है।