चुनावी रसगुल्ला : यहाँ का नेता महान, जनता उससे भी महान !

नालंदा दर्पण डेस्क / मुकेश भारतीय। हमारे देश भारत में चुनाव  वैसे तो एक पवित्र लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, परंतु इसमें जो मजेदार और विसंगतिपूर्ण घटनाएं घटित होती हैं, वे एक अलग ही रोमांच प्रदान करती हैं। आइए, इस महोत्सव पर एक खास नज़र डालें…

नेताजी का भाषणः चुनाव आते ही नेताजी गाँव-गाँव, गली-गली घूमने लगते हैं। ये वहीं नेताजी होते हैं, जो पिछले पाँच साल में अपने क्षेत्र में दर्शन नहीं देते। अब अचानक उन्हें जनता की तकलीफें याद आ जाती हैं। ‘हम आपके साथ हैं’ कहते हुए वह सड़क पर कचरा उठाने का नाटक करते हैं। एक दिन में विकास की इतनी बातें होती हैं कि ऐसा लगता है, अगले दिन से ही हर गाँव पेरिस बनने वाला है।

मुफ्त के वादेः चुनाव के समय हर पार्टी अपने घोषणापत्र में मुफ्त की चीजों की झड़ी लगा देती है। मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त वाय फाय, मुफ्त राशन और यहाँ तक कि मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा भी। जनता को ऐसा महसूस होता है कि चुनाव जीतने के बाद नेताजी अपने पिता जी का जमीन बेचकर ये सब देंगे, जबकि सच्चाई कुछ और होती है।

रंग-बिरंगी रैलियाँ: चुनावी रैलियाँ भी किसी महाकुंभ से कम नहीं होतीं। लाल, हरे, नीले, पीले झंडों से सजी हुई सड़कों पर नेताजी की गाड़ी ऐसी निकलती है, जैसे कोई राजा अपनी प्रजा के दर्शन करने निकला हो। रैली में जुटाई गई भीड़ देखकर ऐसा लगता है कि जनता बस इसी पल का इंतजार कर रही थी। परंतु अधिकांश भीड़ दोपहर का खाना और कुछ पैसे देकर बुलाया गया होता है।

डिजिटल युद्धः इस ताजा युग में चुनाव सिर्फ मैदान में नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर भी लड़ा जाता है। हर पार्टी अपने विरोधियों पर मीम्स, ट्रोल और व्यंग्य कसती है। व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में न जाने कितने ही फर्जी समाचार और अफवाहें फैलती हैं। एक पार्टी के समर्थक दूसरी पार्टी के नेताजी की पुरानी तस्वीरों और बयानों को खंगालकर निकालते हैं और मजे लेते हैं।

मतदाता का दिलः चुनाव के दिन मतदाता पोलिंग बूथ पर जाते समय अपने मन में कई विचारों से घिरे होते हैं। कुछ सोचते हैं कि किसने ज्यादा बड़े वादे किए।  कुछ विचार करते हैं कि किसने ज्यादा पैसा खर्च किया और कुछ केवल इस आधार पर वोट देते हैं कि नेताजी उनके जाति या धर्म के हैं। अंततः जो भी जीते, हारता हमेशा जनता ही है।

परिणामों का नाटकः चुनाव परिणाम आने पर एक और नाटक शुरू होता है। जो जीतता है, वह इसे जनता की जीत बताता है और जो हारता है, वह इवीएम (इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन) को दोषी ठहराता है। जनता सोचती है कि चुनाव जीतने के बाद नेताजी अपने वादों को पूरा करेंगे। परंतु नेताजी सत्ता में आते ही अपने वादों को भूल जाते हैं और अगले चुनाव की तैयारी के लिए लुटने में जुट जाते हैं।

फिलहाल यही है भारतीय चुनाव का महोत्सव, जहां लोकतंत्र की जय-जयकार के साथ विसंगतियों का मेला भी लगता है। जनता हर पाँच साल में एक नया सपना देखती है। परंतु यह सपना कब साकार होगा? यह किसी को नहीं पता। अंत में  हम सब यही कहते हैं- यहाँ का नेता महान, जनता उससे भी महान!

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