नालंदा दर्पण डेस्क। ‘लौटेगी चहचहाहट जरूर फिर से मेरे आंगन में,बढ़ाये हैं चंद कदम मैंने गौरया तेरे स्वागत में…’ यह प्यार और संवेदना और दिल से निकली एक आवाज है चंडी प्रखंड के महकार पंचायत के मुखिया शिवेन्द्र प्रसाद की, जो अपने घर रैसा में विलुप्त होती गौरैया को संरक्षित करने को एक सराहनीय पहल किए हुए हैं।
कहा जाता है कि जहां-जहां इंसान गया, गौरैया पीछे-पीछे पहुंच गया। लेकिन इंसान तो आज भी दिखता है, लेकिन गौरैया नहीं। प्रकृति को आबाद कर गौरैया खुद विलुप्त होते जा रहा है।
लेकिन आज भी प्रकृति से जुड़े हुए लोग हैं, जो बचपन की चिड़िया को भूलें नहीं है,उनके घर आंगन में आज भी गौरैया चहकती है। मुखिया शिवेन्द्र प्रसाद के घर आंगन में गौरैया की चहचहाहट बचपन में लौटा देती है।
मुखिया शिवेन्द्र प्रसाद कहते हैं कि बचपन से ही गौरैया उनका मनपसंद चिड़िया हुआ करती थी। बचपन की ढ़ेर सारी यादें रहीं हैं। लेकिन समय के साथ हमारी बचपन की चिड़िया कहीं गायब होती चली गई। जब गौरैया संरक्षण की पहल राज्य सरकार ने की तो विलुप्त होती इस पक्षी को संरक्षित करने का विचार उनके मन में आ गया।
उन्होंने गौरैये को संरक्षित करने के लिए अपने घर में बाक्स लगा दिये।उनके लिए दाना-पानी की देखरेख वे खुद करते हैं। देखते-देखते दर्जनों गौरैया का आश्रय उनका आंगन बन गया।
जैसे ही उनके घर में प्रवेश करेंगे आपका स्वागत गौरैयों की चहचहाहट से होंगी। लगेगा कि आप किसी के घर में नहीं बल्कि किसी विरान जंगल में है जहां ढ़ेर सारी पक्षियां चहचहा रही है।
मुखिया शिवेन्द्र प्रसाद ने अपने घर के आंगन में गौरेयों के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार किया है। उनके खाने के लिए बाजरा और पानी के सकोरे रखें हैं।
उनके घर के अन्य सदस्य बताते हैं कि गौरेये की मधुर आवाज़ अहेले सुबह सुनकर उन्हें एक अजब अनुभूति और ताजगी का संचार होता है। वे मोबाइल के अलार्म से नहीं, बल्कि उनकी चहचहाहट से आंख खुलती हैं।
खास बात यह है कि परिवार के लोगों के सामने वे आने-जाने से डरते नहीं हैं। कहा जाता है कि घर में गौरैया का होना वास्तुशास्त्र के लिए भी सही माना जाता है।
देखा जाएं तो आज मानवीय जीवन से प्रेरित पक्षी गौरैया अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। बदलती जीवनशैली ने इसकी विलुप्त होने में अहम भूमिका निभाई है। दरअसल, पहला कारण तो हमारे घरों की बनावट ही है।
देखा जाये तो पहले हमारे घरों की बनावट ही ऐसी होती थी, जिसमें चिड़ियों के लिए एक खास जगह बनायी जाती थी, झरोखे होते थे, जिनसे होकर चिड़िया घर में आती थी और घर में बने आलों में अपना घोंसला बनाती थी।
सच यह है कि अक्सर घर-परिवारों के आसपास रहना पसंद करने वाली गौरैया के लिए आज बढ़ते शहरीकरण और मनुष्य की बदलती जीवनशैली में कोई जगह नहीं रह गई है। आज व्यक्ति के पास इतना समय ही नहीं है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी खुली छोड़े जहां वे अपने घोंसले बना सकें।
हम इतना ही करें कि नालियों, डस्टबिन व सिंक में बचे हुए अन्न के दानों को बहने देने से बचायें और उनको छत पर खुली जगह पर डाल दें ताकि उनसे गौरैया अपनी भूख मिटा सके।
देखा जाये तो गौरैया को बचाने के बारे में आज तक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। इसलिए जरूरी है कि हम अपने घरों की खिड़की और बालकनी में एक मिट्टी के बर्तन में थोड़ा पानी रखें और एक प्लेट में कुछ दाना रखें।
अपने घरों के बाहर बाजार में मिलने वाले घोंसले लटकाएं, उसमें वह आकर अपना घर बनाएगी। उसमें थोड़ा पानी व दाना भी रखें। मेहंदी जैसे पेड़ों को लगायें जहां वह घोंसला भी बनायेगी।
उन पर पनपने वाले कीड़ों को गौरैया बड़े चाव से खाती है। सरकारें कुछ करें या ना करें, अपने स्तर से तो हम यह कर ही सकते हैं। अगर ऐसा नहीं कर पाएं तो गौरैया आने वाले समय में किताबों में ही रह जायेगी, इसमें कोई शक नहीं है।
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Bahut sundar karya sir
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