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सीएम नीतीश कुमार के शून्य से शिखर पर पहुंचने का रोचक सफर

नालंदा के कल्याण बिगहा गांव के मुन्ना अपने मित्र मुन्ना सरकार की राजदूत पर पीछे बैठते-बैठते बिहार की राजधानी पहुंच गए और बाद में सता के रथ पर सवार हुए। 1985 का विधानसभा चुनाव वे आखिरी बार इस शर्त पर लड़ रहे थे कि अगर इस बार हार गए तो राजनीति से संन्यास ले लेंगे और ठेकेदारी में भाग्य आजमाएंगे…

नालंदा दर्पण (जयप्रकाश नवीन)। 23 फरवरी 1973 पटना के गांधी मैदान के पश्चिम में स्थित लाला लाजपतराय भवन से वर-वधू सफेद रंग की नयी फिएट कार से बख्तियारपुर के लिए रवाना होते हैं, जो वहां से करीब सौ किलोमीटर के फासले पर था। गाड़ी पर वीआईपी नंबर बीआरपी 111 प्लेट लगी थी। उस फिएट के ड्राइविंग सीट पर बैठे वर के पारिवारिक मित्र थें। जिसने सिर्फ चार साल बाद 1977 के पहले विधानसभा चुनाव में पटखनी दे दी थी।

फिएट कार पर बैठे वर का नाम नीतीश कुमार था और फिएट से लाने वाले भोला प्रसाद सिंह थे। जिन्होंने नीतीश कुमार को एक बार अपनी उम्मीदवारी से तो दूसरी बार अरूण चौधरी को समर्थन देकर हरनौत से हराने में कामयाब रहे थे। नीतीश कुमार को यह सोचकर प्रायः आश्चर्य होता था कि उनके विवाह का रथ हांकनेवाले को बार-बार उनका राजनीतिक जीवन खराब करने की प्रेरणा कहां से प्राप्त हुई?

हरनौत का प्राचीन इतिहास सीधे तौर पर उल्लेखित नहीं है, लेकिन यह क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण प्राचीन नालंदा साम्राज्य के एक हिस्से के रूप में रहा है। ज्ञान की भूमि नालंदा के प्रवेश द्वार के रूप में हरनौत की पहचान थी।  जिसे अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जन्मभूमि और कर्मभूमि के लिए ज्यादा जाना जाता है। यह पंचाने नदी के तट पर स्थित है। यहां की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित है।

जिन दिनों राजनीति में लालू प्रसाद यादव का सूरज चढ़ रहा था, नीतीश कुमार के लिए वे दिन बहुत खराब साबित हो रहा था। 1977 में आपातकाल विरोधी लहर पर सवार लालू प्रसाद छपरा से लोक सभा में पहुंच गए। 1980 में बिहार विधानसभा में सोनपुर सीट जीत गए और 1985 में उन्होंने अपनी सफलता दुहराई भी। वहीं नीतीश कुमार का आरंभिक रिकॉर्ड काफी खराब रहा।

जब नीतीश कुमार की लोकसभा की बस छूट गई: हरनौत विधानसभा का गठन 1977 में हुआ था। यहां से पहली बार नीतीश कुमार के हारने और उनके उसी दोस्त भोला प्रसाद सिंह की जीत की भूमिका में बहुचर्चित बेलछी नरसंहार का बड़ा हाथ रहा। लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि नीतीश कुमार 1977 में सर्वप्रथम लोकसभा का चुनाव लड़ने वाले थे। लेकिन अपने मित्र नरेन्द्र सिंह की एक ग़लती की वजह से लोकसभा की बस छूट गई।

जयप्रकाश नारायण ने 1977 लोकसभा चुनाव में उन्हें बाढ़ से टिकट दिया। जेपी ने नामांकन के आखिरी दिन से एक दिन पहले बाढ़ से नीतीश कुमार की उम्मीदवारी पर ठप्पा लगाया। लेकिन नीतीश कुमार उस समय भागलपुर जेल में थे। नीतीश कुमार के दोस्त नरेंद्र सिंह को पटना सचिवालय जाकर रिहाई का आदेश लेकर भागलपुर सेंट्रल जेल जाना था। लेकिन नरेंद्र सिंह ने रिहाई का आदेश नहीं लिया। जिससे नीतीश कुमार नामांकन से वंचित रह गए।

हालांकि नीतीश कुमार को इसका मलाल कभी नहीं रहा। क्योंकि नीतीश कुमार को इस मामले की जानकारी नहीं थी।-कभी वे इस बात को लेकर नरेंद्र पर हंसते भी है। 1977 में लोकसभा की बस तो छूट गयी, लेकिन उन्हें विधानसभा चुनाव का टिकट मिल गया।

1977 और 1980 में नीतीश कुमार को चखना पड़ा हार का स्वाद: 1977 में लोकसभा पहुंचने का सपना तो नीतीश कुमार का पूरा नहीं हो सका। लेकिन उन्हें नवगठित हरनौत विधानसभा से जनता पार्टी का टिकट मिल गया। उन्होंने पहला चुनाव लड़ा और अपने हट्टे कट्ठे पारिवारिक मित्र बोला प्रसाद सिंह से चुनाव हार गए। जबकि वे हरनौत को अपनी ही सीट समझते थे।

लेकिन हरनौत से उनकी घरेलू सीट ही उनकी बर्बादी का कारण बन गई। उनके प्रभावशाली रिश्तेदार उनके विरोध में एकजुट हो गए थे। उन्हें इस बात से बड़ा धक्का लगा कि उनके नाते-रिश्तेदारों में उनके अपने ससुराल वाले भी शामिल थें। इसके पीछे बेलछी नरसंहार एक बड़ा मुद्दा बन गया था। हरनौत के उनके समाज के लोगों की राय थी कि नीतीश समाज के लोगों का साथ दें।

लेकिन लोहिया और किशन पटनायक के विचारों को घोंटकर पीने वाले नीतीश कुमार ने उत्पीड़कों का पक्ष लेने, आंदोलन का नायक बनने से इंकार कर दिया। वह अपने कुछ मित्रों के साथ अक्सर मांगी हुई साइकिलों पर पीछे बैठकर हरनौत में जगह-जगह जाकर सामाजिक सद्भाव बनाए रखने की अपील करते हुए बेलछी के दलित उत्पीड़तो के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने का वादा करते। यहीं से उनके समाज के लोगों ने उन्हें ‘बागी’ करार दे दिया। यहां तक कह डाला कि जो आदमी अपने बचाव में खड़ा नहीं हो सकता वह किसी की रक्षा कैसे कर सकेगा?

वर्ष 1977 के विधानसभा चुनाव में उनके सामने मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में थे भोला प्रसाद सिंह (जिन्हें भोला बाबू कहलाना अधिक पसंद था)। वहीं आदमी जो चार साल पहले नीतीश कुमार के विवाह का रथ (फिएट कार) हांक रहे थे।

नीतीश कुमार के पास उस समय चुनाव लड़ने के लिए ज्यादा साधन नहीं थे और ना ही अधिक धन-दौलत, उनके समर्थक भी दलित और पिछड़ी जातियों के थे। इसके अलावा वे अभी भी चुनावी व्यापार की चालों से अनभिज्ञ थे। कच्चे खिलाड़ी थे और आदर्शवादी विचारों में ज्यादा खोये रहते थे। उन्हें अवैध धन मंजूर नहीं था। बाहुबल के प्रयोग से उन्हें नफरत थी।

वहीं दूसरी तरफ भोला प्रसाद सिंह बहुत ही ज्यादा चतुर और अवसरवादी थे। उनके पास चुनाव जीतने के हर दांव पेंच था। नतीजा नीतीश कुमार अपने पहले ही चुनाव में हार का स्वाद चखना पड़ा।

तीन साल फिर नीतीश कुमार को भाग्य आजमाने का मौका मिला। लेकिन इस बार उनके सामने उनके दोस्त बोला प्रसाद सिंह नहीं थे। लेकिन भोला प्रसाद सिंह ने अरूण कुमार सिंह उर्फ अरूण चौधरी का समर्थन किया,जो बेलछी नरसंहार के मुख्य अभियुक्तों में से एक था। भोला प्रसाद सिंह ने नीतीश कुमार को हराने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। भले नीतीश कुमार अरूण चौधरी से हार गए, लेकिन चर्चा चली कि भोला प्रसाद सिंह ने दूसरी बार उन्हें हार का स्वाद चखाया।

नीतीश के वे दुर्दिन के दिनः लगातार दो चुनाव हारने के बाद नीतीश कुमार टूट से गये थे। परिवार पर उनका कोई ध्यान नहीं था। आर्थिक रूप से उनके पास कमाई का कोई साधन नहीं था। 1980 में उनके पुत्र निशांत का जन्म भी हो चुका था, जो नाना-नानी के यहां पल रहा था। नीतीश कुमार तब ऐसे राजनीतिज्ञ थे, जिसके पास मेहनत के बदले में मिली असफलता के सिवा कुछ नहीं था दिखाने के लिए। नीतीश कुमार एक सिविल ठेकेदार बनने का पक्का निर्णय कर चुके थें।

उसी दौरान उनके जीवन में एक और सहयोगी आ पहुंचे और उसने अशिष्टातापूर्वक नीतीश के इस कदम को वहीं रोक दिया, वरना एक ऐतिहासिक संघर्ष की शुरुआत की पूर्ण विराम लग गया होता। वह एक भारी-भरकम स्थूलकाय शख्स थे विजय कृष्ण एक मित्र और एक भावी शत्रु। विजय कृष्ण उन्हीं जगहों से आए थे, जहां से नीतीश आए। बख्तियारपुर से थोड़ा आगे पूर्व में अठमलगोला से और कुछ ज्यादा ही मुफस्सिल इलाका माना जाता है।

राजपूत समुदाय ने अक्सर कुर्मियों के साथ मिलकर चुनाव जीतने वाला गठबंधन किया। दोनों के परिवार एक दूसरे से परिचित थे। दोनों का एक दूसरे के घरों में आना जाना था। जब उन्होंने रेलगाड़ी से पटना जाना शुरू किया,विजय कृष्ण एक सीट नीतीश के लिए रख लिया करता थे।

इसी बीच नीतीश कुमार अपने एक दोस्त सुरेश‌ शेखर जो भारतीय रिजर्व बैंक में काम करते थे, उनके बुलावे पर लंबी यात्रा पर मद्रास चले गए। वे की सप्ताह वहां रहें और जब वापस आएं तो नई प्रेरणा नए उत्साह से भरे हुए थे। यह प्रेरणा फिर उन्हें संभवतः दोस्त शेखर से मिली थी।

‘मुन्ना’  के लिए लक्की साबित हुआ मुन्ना सरकार की राजदूतः नीतीश कुमार के लिए अपने निजी मित्र भोला प्रसाद सिंह की फिएट कार जिसका वीआईपी नबंर बीआरपी 111 भले ही लक्की साबित नहीं हुई। लेकिन मुन्ना सरकार की राजदूत बाइक लकी साबित हुई। मुन्ना सरकार बख्तियारपुर के थे और नीतीश कुमार के खास दोस्त भी।

नीतीश कुमार अक्सर मुन्ना सरकार की राजदूत मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर घूमा करते थे। मुन्ना सरकार की बाइक जिसका नबंर बीएचक्यू 3121 जिसका कुल जोड़ 7 होता है, जो नीतीश कुमार के लिए शुभ माना जाता है। नीतीश के शुरूआती सालों में बख्तियारपुर में मुन्ना सरकार ने उनका बहुत साथ दिया। वे नीतीश कुमार के नामांकन के लिए अपनी मां से पैसे लेकर जाते थे।

नालंदा के कल्याण बिगहा गांव के मुन्ना अपने मित्र मुन्ना सरकार की राजदूत पर पीछे बैठते-बैठते बिहार की राजधानी पहुंच गए और बाद में सता के रथ पर सवार हुए। 1985 का विधानसभा चुनाव वे आखिरी बार इस शर्त पर लड़ रहे थे कि अगर इस बार हार गए तो राजनीति से संन्यास ले लेंगे और ठेकेदारी में भाग्य आजमाएंगे।

1985 का विधानसभा चुनाव में कूदना आसान नहीं था। इंदिरा-राजीव लहर अभी चढ़ाव पर थी। उनका पुराना वीर, कुर्मी अधिकारों का तरफदार अरूण चौधरी अभी भी मैदान में थे। वहीं हरनौत में उनके प्रतिद्वंद्वी भोला सिंह का जलबा बरकरार था। उनके समर्थकों में यह नारा प्रचलित था- बम चले या गोला,जीतेगा तो भोला।

लेकिन इस बार नीतीश और उनकी लोक दल टोली विजय कृष्ण उनके राजनीतिक सलाहकार-प्रबंधक बन गए और उसने राजपूत समुदाय का महत्वपूर्ण समर्थन नीतीश कुमार के पक्ष में कर लिया था। बेहतर तैयारी के साथ मैदान में उतरी। दांवपेंच का जबाब दांवपेंच से और धमकी का जबाब धमकी से देने के लिए कमर कसे हुए।

इस बार उनके दोस्त नरेंद्र ने नीतीश कुमार को जीताने की कसम खाई थी। नरेंद्र ने अपने अकाउंट से बीस हजार रुपए निकाले साथ ही उनकी पत्नी मंजू देवी के बीस हजार रुपए मिलाकर नरेंद्र ने बूथों पर खर्च की।

नरेंद्र,विजय कृष्ण, मुन्ना सरकार की  मदद रंग लाई और नीतीश कुमार 22 हजार मतों से चुनाव जीतकर विधानसभा में प्रवेश कर लिया। उन्होंने विधानसभा में की बार बड़ी बहस में हिस्सा लिया और उन्होंने अपने नेता कर्पूरी ठाकुर का ध्यान खींचा। बाद‌ में नीतीश कुमार को युवा लोकदल का अध्यक्ष बनाया गया।

एक बार बिहार के मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दूबे बजट सत्र में उनके भाषण से इतने प्रभावित हुए कि अपने भाषण में उन्होंने नीतीश कुमार का नाम भी लिया। 1985 विधानसभा चुनाव में जीत ने उनके राजनीतिक भविष्य की द्वार खोलकर रख दी। फिर उन्होंने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1989 में विधानसभा का सदस्य रहते हुए उन्हें लोकसभा में पहुंचने का एक और अवसर मिलने जा रहा था।

अटल बिहारी वाजपेयी का संदेश नीतीश के लिए बना संजीवनी: 1989 में नीतीश कुमार को भले ही जनता दल से बाढ़ लोकसभा के लिए टिकट मिल गया। जनता दल को वीपी लहर का भी फायदा मिल रहा था। लेकिन बाढ़ में नीतीश कुमार के सामने शेर-ए-बिहार के नाम से लोकप्रिय कांग्रेस और यादव के सबसे बड़े नेताओं में एक रामलखन सिंह यादव थे।

बाढ़ में यह लड़ाई हाथी और चींटी की मानी जा रही थी। उधर चौधरी देवीलाल ने हरियाणा से एक सुंदर सी, आरामदायक विलिस कार (सीएचके 5802) नीतीश के लिए भेजवा दी, ताकि वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में आसानी से घूम सकें। नीतीश कुमार के पास एक एम्बैसडर पहले से थी। नीतीश की टीम ने अपने वाहनों पर पार्टी का झंडा नहीं लगाया लेकिन लोग खुलकर समर्थन कर रहे थे। कुल मिलाकर वीपी लहर के बाबजूद वह एक फीका चुनाव अभियान था।

अटल बिहारी वाजपेयी भी बाढ़ से अपने प्रत्याशी का चुनाव प्रचार के लिए आए हुए थे। उन्होंने नीतीश कुमार के बारे में कुछ अच्छी बातें सुनी और वोटरों से कहा कि किसी ऐसे को वोट कीजिए, जो कांग्रेस को हरा सके। लेकिन उन्होंने नीतीश कुमार के खिलाफ जनता के बीच कुछ नहीं बोलें।

अब नतीजों ने सबको हैरान कर दिया, क्योंकि नीतीश कुमार लगभग पौने लाख वोट से चुनाव जीत चुके थे। 1989 में वीपी सिंह की सरकार में उप प्रधानमंत्री बने देवीलाल के अंतर्गत कृषि मंत्रालय में निचली कुर्सी उनकी प्रतीक्षा कर रही थी।

‘कुर्मी चेतना रैली’ नीतीश के लिए टर्निंग प्वाइंट: कहते हैं राजनीति में  पेड़ कोई और लगाता है फल कोई और खाता है। यह बात नीतीश कुमार पर लागू होती है। कुर्मी चेतना रैली का नायक सतीश कुमार मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कालेज के विज्ञान के छात्र थे। वे गुप्त नक्सली संगठन में सक्रिय रहे। लेकिन 1980 के दशक में उन्होंने अपना मुखौटा उतार दिया और साम्यवाद की मुख्यधारा में शामिल हो गए।

भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी में जाने के बाद उन्हें शीघ्र तरक्की मिल गई और वे 1990 में सूर्यगढ़ा से विधायक बन गये। बाद में उन्होंने सीपीआई छोड़ दी और साम्यवादी विचारधारा या सिद्धांत के विपरित रास्तों की तलाश में चल पड़े। अंततः उन्होंने समय की हवा का रूख पहचानकर जाति आधारित राजनीति में कूदने का फैसला कर लिया। वे अकेले ही कुर्मी चेतना अभियान पर निकल पड़े और देखते-देखते उन्हें जातिय समर्थन मिलने लगा। पूरे बिहार में लगभग 282 जनसभाएं सतीश कुमार ने की तब जाकर गांधी मैदान में लाखों की भीड़ जुटी।

12 फरवरी,1994 को आयोजित कुर्मी चेतना रैली में आने के लिए आखिरी बार सतीश कुमार ने नीतीश से मुलाकात कर न्योता दिया, लेकिन उनके ओर से कोई संतोषजनक जबाब नहीं मिला। नीतीश इस रैली से अपने आप को किनारे रखना चाहते थे, लेकिन दो ऐसे दिग्गज विजय कृष्ण और बाद में लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार को कुर्मी चेतना रैली में शामिल होने पर जोर दिया।

उनका कहना था कि ऐसे में सतीश‌ कुमार कुर्मियों के नायक बन जाएंगे! उनके कहने पर नीतीश कुमार अपने मित्र ज्ञानू की गाड़ी पर बैठकर गांधी मैदान पहुंचे, जहां पहले तो उनका विरोध हुआ, लेकिन सतीश कुमार ने भीड़ को समझाया। तब जाकर भीड़ शांत हुई। इस रैली में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव का विरोध किया। एक बार नीतीश कुमार बोलना शुरू किए तो भीड़ का ग़ुस्सा शांत हो गया। भीड़ उनके भाषण के बीच-बीच में तालियां बजा रही थी। इस रैली का नायक सतीश कुमार पर्दे के पीछे चले गए और नीतीश कुर्मियों के सर्वमान्य नेता बन चुके थें। इस बात की टीस आज भी सतीश कुमार के अंदर है कि कुर्मी चेतना रैली की मलाई कोई और खा गया।

जनता दल (जार्ज) से जनता दल यूनाइटेड का सफर: कुर्मी चेतना रैली ने नीतीश कुमार को भरोसा दिया वह बिहार में पैर जमा सकते हैं। उनकी राहे लालू से अलग होने की पृष्ठभूमि तय हो गई। 21अप्रैल,1994 को  14 सांसदों ने जनता दल से अलग हो कर जनता दल (जार्ज) का गठन किया।

लेकिन 19 अक्टूबर,1994 को जनता दल (जार्ज) अपने आवास से उखड़ कर अपने नये पते पर पहुंच चुका था। अब इसका नाम समता पार्टी हो चुका था। पटना के गांधी मैदान में पूरे गाजे बाजे के साथ बिगुल बजाते हुए, नारों का उद्घोष करते हुए जुलूस पहुंच चुका था। झंडे और झालरें हवा में फड़फड़ा रहें थे, कोलाहल था, गर्जना थी और प्रलाप था।

बार-बार एक ही पुकार कानों से टकरा रही थी- बिहार बचाओ, इसे लालू यादव से बचाओ। इस आंदोलन के सरमाएदार और उनके टहलुए खड़े होकर भीड़ को हाथ लहरा रहें थे। उनकी तादाद इतनी थी कि लकड़ी का मंच चरमरा उठा। जार्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार, अब्दुल गफूर, शिवानंद तिवारी, वृषण पटेल ,सतीश कुमार और भोला प्रसाद सिंह मौजूद थे।

1995 के विधानसभा चुनाव में नीतीश पहली बार लालू के बिना मैदान में उतरे। इस चुनाव में नीतीश कुमार ने हरनौत से जीत हासिल की लेकिन महज सात सीटें ही जीत सकी। यह काफी खराब शुरुआत थी, नीतीश कुमार को सामाजिक ताने-बाने की पेचीदगियां समझ में आ रही थी।

1999 में नीतीश कुमार ने अपनी समता पार्टी का शरद यादव की जेडीयू के साथ विलय कर लिया और बीजेपी को साथ लेकर 2000 के चुनाव में पहले से ज्यादा सीटें प्राप्त कर ली। 54 सीटों में से जेडीयू ने 42 सीट पर जीत हासिल की।

नीतीश कुमार से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार: एनडीए 122 सीटें जीत चुकी थी। 3 मार्च,2000 बिहार के नये  सीएम के रूप में नीतीश कुमार को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई गई। हालांकि अभी भी एनडीए के पास बहुमत नहीं था। उन्होंने बहुमत सिद्ध करना था। लेकिन वह बहुमत सिद्ध करने से पहले ही मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे चुके थे।

फ़रवरी 2005 में बिहार अंततः लालू प्रसाद के हाथ से निकल गया। लेकिन जीता कोई नहीं। लालू प्रसाद को 243 विधानसभा सीटों में 75 सीटें मिल सकी। इस बार सता की चाबी रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी के हाथ में थी। उन्होंने किसी भी गठबंधन को समर्थन देने के बजाय मुस्लिम मुख्यमंत्री पर अड़ गए। नतीजा राज्य को राष्ट्रपति शासन झेलना पड़ गया।

नवम्बर में फिर से विधानसभा का चुनाव होता है। 24 नवम्बर,2005 को पूर्ण बहुमत के साथ नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद पर सतासीन होते हैं। पिछले 20 साल से नीतीश कुमार अजेय बने हुए हैं।

कहते हैं परिवर्तन प्रकृति का नियम है पर राजनीति कुछ ज्यादा ही परिवर्तन शील है। बात अगर बिहार की राजनीति की हो तो यहां कुछ ही ज्यादा परिवर्तन हुआ है पिछले कुछ सालों में। इस परिवर्तन के केंद्र में एक ही व्यक्ति रहें हैं- नीतीश कुमार।

फिलहाल 2025 का विधानसभा चुनाव की डुगडुगी बजने वाली ही है। ऐसे में उनकी पार्टी का नारा ‘2025 से 30’ नीतीशे कुमार बहुत कुछ संकेत दे रहा है। ऐसे में 2025 का चुनाव बहुत ही रोचक होगा। समाजवादी धारा के दो बड़े नेता लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार अपने उम्र के ढलान पर हैं। दूसरी पीढ़ी सता स्थानांतरण के लिए तैयार होगी? चाहे नायक किसी दल का हो।

कभी हरनौत से राजनीति पारी की शुरुआत करने वाले नीतीश कुमार के सामने हरनौत की विरासत अपने पुत्र निशांत कुमार को सौंपने की मांग बराबर उठ रही है। नीतीश कुमार फिलहाल बिहार के उन दो मुख्यमंत्रियों की श्रेणी में शामिल हैं एक श्रीकृष्ण सिंह और दूसरे कर्पूरी ठाकुर, जिन्होंने अपने जीते-जी अपने पुत्रों-सगे संबंधियों को राजनीति में आने नहीं दिया।

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