नालंदा की उर्वरता को यूं निगल रहे कंक्रीट के झाड़ी जंगल
बिहारशरीफ (नालंदा दर्पण)। नालंदा की धरती चना, मसूर, गेहूँ, धान, आलू, प्याज, मसाले, सब्जी और गन्ने के हरे-भरे खेतों के लिए जानी जाती थी। लेकिन आज एक चुपके से गहराते संकट का सामना कर रही है। वे उपजाऊ खेत, जो पीढ़ियों का पेट भरते थे और बिहार की शान थे, वह अब कंक्रीट के जंगलों-सड़कों, मकानों, और बाजारों के बोझ तले दब रहे हैं। जैसे-जैसे शहरीकरण की लहर नालंदा को निगल रही है, एक सवाल हर दिल में कौंधता है कि क्या हमारी प्रगति हमारी जड़ों को ही उखाड़ देगी? क्या हम भविष्य की पीढ़ियों के लिए भोजन, शुद्ध हवा और पानी सुनिश्चित कर पाएंगे?
कभी नालंदा के खेतों में दूर-दूर तक हरे-भरे फसलों की लहरें दिखाई देती थीं। किसान गर्व के साथ अपने खेत जोतते थे और हवा में ताजा धान और मसूर की खुशबू तैरती थी। मकर संक्रांति जैसे त्योहारों पर गाँवों में गुड़ और चने की मिठास हर घर को एकजुट करती थी। लेकिन आज यह तस्वीर धुंधली पड़ रही है।
वर्ष 2025 में नालंदा की जनसंख्या लगभग 33 लाख तक पहुँच चुकी है, जो 2011 की जनगणना के 28.77 लाख से 15% अधिक है। यानी 14 वर्षों में जनसंख्या में 1.6% की वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई है। इस बढ़ती आबादी को भोजन, पानी और शुद्ध हवा प्रदान करने की चुनौती के सामने नालंदा के खेत सिकुड़ते जा रहे हैं।
जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 2,29,135 हेक्टेयर है, जिसमें से 1,91,080 हेक्टेयर (78.6%) भूमि कृषि योग्य मानी जाती है। लेकिन वास्तव में केवल 1,80,140 हेक्टेयर पर ही खेती हो रही है। पिछले दो दशकों में 45,963 हेक्टेयर यानी 20.06% भूमि—शहरी परियोजनाओं की भेंट चढ़ चुकी है।
राजगीर निवासी राम प्रसाद तीसरी पीढ़ी के किसान हैं। वे बताते हैं कि मेरे दादा के समय में हमारे खेतों से पूरे गाँव का पेट भरता था। अब वही खेत एक मॉल और कॉलोनी में बदल गए हैं। मेरे बच्चे अब खेती का मतलब भी नहीं समझते। उनकी आवाज में निराशा और बेबसी साफ झलकती है।
विकास ने नालंदा को नई पहचान दी है। नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी, इंजीनियरिंग कॉलेज, क्रिकेट स्टेडियम, डेयरी परियोजनाएँ और फिल्म सिटी ने जिले को आधुनिकता का चेहरा दिया है। लेकिन इस चकाचौंध की कीमत चुकाई है उपजाऊ जमीन ने।
पिछले 20 वर्षों में इन परियोजनाओं के लिए 300 एकड़ से अधिक खेती योग्य भूमि नष्ट हो चुकी है। इसके अलावा 349 सड़क परियोजनाओं ने 122.12 एकड़ खेतों को लील लिया है। बिहारशरीफ के पास पुलिस ट्रेनिंग सेंटर के लिए सैकड़ों एकड़ जंगल काटे गए, जिसने न केवल हरियाली को नष्ट किया बल्कि स्थानीय जैव-विविधता को भी प्रभावित किया।
नदियों के किनारों पर बढ़ते अतिक्रमण ने स्थिति को और जटिल कर दिया है। पंचाने और सकरी जैसी नदियों के किनारे बनी अवैध बस्तियों और इमारतों ने सिंचाई प्रणालियों को बाधित कर दिया है।
परिणामस्वरूप कई किसानों को फसल के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा। सिलाव के किसान अजय यादव कहते हैं कि पहले नदी का पानी हमारे खेतों तक आसानी से पहुँचता था। अब नदी के किनारे बनी दुकानों और मकानों ने पानी का रास्ता रोक दिया है। बरसात में बाढ़ और सूखे में पानी की कमी से हमारी हालत खराब हो गई है।
नालंदा का वन क्षेत्र केवल 1.95% (4,462 हेक्टेयर) है, जो पर्यावरणीय संतुलन के लिए पूरी तरह अपर्याप्त है। यह कमी न केवल हवा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है, बल्कि स्थानीय जलवायु को भी बदल रही है। गर्मी की तीव्रता बढ़ रही है और बारिश का पैटर्न अनियमित हो गया है।
नालंदा कभी अपनी फसलों के लिए आत्मनिर्भर था। वह अब चना, मसूर, आलू और गुड़ जैसी परंपरागत फसलों के लिए अन्य राज्यों पर निर्भर हो गया है। यह बदलाव न केवल आर्थिक बल्कि सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी चिंताजनक है।
नालंदा की नई पीढ़ी खेती से दूर होती जा रही है। शहरी नौकरियों, शिक्षा और आधुनिक जीवनशैली का आकर्षण युवाओं को खेतों से शहरों की ओर खींच रहा है। हरनौत की सुनीता देवी अपने परिवार के साथ 10 बीघा जमीन पर खेती करती थीं। वह बताती हैं कि मेरा बेटा इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पटना चला गया। वह कहता है कि खेती में मेहनत ज्यादा और कमाई कम है। जब हमारे खेत ही बिक रहे हैं तो मैं उसे कैसे रोकूँ? यह कहानी नालंदा के कई गाँवों की सच्चाई है।
आंकड़े इस स्थिति को और स्पष्ट करते हैं कि हर साल 9,308 हेक्टेयर (4.06%) कृषि योग्य भूमि परती रह जाती है, और 27,951 हेक्टेयर (12.2%) ऊसर या बेकार पड़ी है, जिसे उचित प्रयासों से उपजाऊ बनाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए निवेश, तकनीक और सामुदायिक इच्छाशक्ति की जरूरत है।
बढ़ती जनसंख्या 1.6% की वार्षिक दर से खाद्य सुरक्षा पर दबाव डाल रही है। इतनी बड़ी आबादी को पोषण देने के लिए हर इंच खेती योग्य जमीन का उपयोग जरूरी है। लेकिन इसके बजाय खेत सिकुड़ते जा रहे हैं।
नालंदा की पहचान केवल इसकी खेती से नहीं, बल्कि इसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत से भी है। प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के समय से ही यह क्षेत्र ज्ञान और कृषि का केंद्र रहा है। बौद्ध ग्रंथों में नालंदा के हरे-भरे खेतों और समृद्ध फसलों का उल्लेख मिलता है।
स्थानीय छठ पूजा, मकर संक्रांति जैसे त्योहार के खेती और प्रकृति के साथ गहरा जुड़ाव दर्शाते हैं। लेकिन जैसे-जैसे खेत कंक्रीट में बदल रहे हैं, यह सांस्कृतिक धरोहर भी खतरे में पड़ रही है। गाँवों में अब गुड़ की मिठास और चने की महक कम ही सुनाई देती है। स्थानीय बाजारों में बाहरी राज्यों से आई फसलें बिक रही हैं, जो नालंदा की आत्मनिर्भरता की कहानी को धुंधला कर रही हैं।
हालांकि अभी हमने सब कुछ खोया नहीं है। मनरेगा, जल-जीवन-हरियाली और अन्य सरकारी योजनाओं के तहत पिछले 20 वर्षों में 18,963 हेक्टेयर (8.27%) भूमि पर वृक्षारोपण हुआ है। यह हरियाली की ओर एक सकारात्मक कदम है, लेकिन यह प्राकृतिक जंगलों की कमी को पूरी तरह से पूरा नहीं कर सकता। क्योंकि इसमें प्रशासनिक भ्रष्टाचार का अधिक बोलबाला है।
कुछ गाँवों में जैसे पावापुरी और गिरियक में सामुदायिक प्रयासों ने ऊसर भूमि को फिर से उपजाऊ बनाने की शुरुआत की है। जैविक खेती और ड्रिप इरिगेशन जैसी तकनीकों ने कुछ किसानों को नई उम्मीद दी है।
लेकिन बड़े पैमाने पर बदलाव के लिए और अधिक प्रयास चाहिए। स्थानीय प्रशासन को अवैध अतिक्रमण के खिलाफ सख्त कदम उठाने होंगे। ऊसर भूमि को पुनर्जनन के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों का सहयोग जरूरी है।
सामुदायिक खेती और युवाओं को खेती की ओर आकर्षित करने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए जा सकते हैं। नालंदा के स्कूलों में पर्यावरण और कृषि शिक्षा को बढ़ावा देकर नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ा जा सकता है।
इसमें कोई शक नहीं है कि नालंदा आज एक दोराहे पर खड़ा है। एक ओर चमकता विकास है- चौड़ी सड़कें, भव्य इमारतें और आधुनिक सुविधाएँ। दूसरी ओर उसकी उपजाऊ जमीन और सांस्कृतिक विरासत है, जो धीरे-धीरे कंक्रीट के जंगल में दफन हो रही है।
क्या हम सतत शहरी नियोजन के माध्यम से प्रगति और संरक्षण के बीच संतुलन बना सकते हैं? क्या ऊसर भूमि को पुनर्जनन करके और नदियों को अतिक्रमण से मुक्त करके हम नालंदा की खोई हरियाली को वापस ला सकते हैं? क्या हमारी नई पीढ़ी को खेती की ओर प्रेरित करके नालंदा की आत्मनिर्भरता को पुनर्जनन दे सकते हैं?
यह प्रश्न केवल नालंदा के किसानों या प्रशासन के लिए नहीं हैं। यह हर उस व्यक्ति के लिए है, जो इस ऐतिहासिक धरती का हिस्सा है। नालंदा की मिट्टी ने हमें सदियों तक पोषित किया है।
अब हमारी बारी है कि हम इस मिट्टी की रक्षा करें। आइए, एक ऐसी नालंदा की कल्पना करें जहाँ कंक्रीट और हरियाली साथ-साथ फलें-फूलें, जहाँ विकास और विरासत एक-दूसरे के पूरक बनें। यह सपना हकीकत में बदलना हमारे आज के निर्णयों पर निर्भर है।









