
इस्लामपुर (नालंदा दर्पण डेस्क)। नालंदा जिले समेत दक्षिण बिहार के कई इलाकों में किसानों की फसलों को बाढ़ डुबो देती हैं या सूखे चौपट कर देती हैं, वहां अब एक ऐसी फसल उगाई जा सकती हैं, जो न बाढ़ से डरती हैं, न सूखे से। उसका नाम हैं खस (वेटीवर)।
इस्लामपुर प्रखंड अवस्थित मगही पान अनुसंधान केंद्र में चल रहे शोध ने साबित कर दिया हैं कि खस की खेती न सिर्फ जलवायु परिवर्तन का मुकम्मल जवाब हैं, बल्कि किसानों की आय को भी कई गुना बढ़ा सकती हैं।
केंद्र प्रभारी वैज्ञानिक एसएन दास ने ‘नालंदा दर्पण’ को बताया कि उत्तर प्रदेश के लखनऊ स्थित केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सिमैप) से नौ उन्नत किस्में मंगवाई हैं। इनमें धरनी, गुलाबी, केसरी, सिम-वृद्धि, खुस्नालिका, केएस-1, के-15, के-22 और सिम समृद्धि प्रमुख हैं। इन सभी किस्मों पर दक्षिण बिहार के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में अनुकूलता का परीक्षण चल रहा हैं।
दरअसल खस एक यह बारहमासी घास हैं। इसे बस एक बार लगाओ और कई साल काटो। इसकी जड़ें 3-4 मीटर तक गहराई में जाती हैं, जिससे मिट्टी का कटाव रुकता हैं और बाढ़ के पानी को सोखकर भू-जल स्तर बढ़ता हैं। बाढ़ वाले क्षेत्रों में यह प्राकृतिक बाँध का काम करती हैं। खारे पानी में भी पनप जाती हैं, इसलिए तटीय और लवणीय भूमि के लिए वरदान। सूखे में भी हरी-भरी रहती हैं क्योंकि जड़ें गहरी पानी खींच लेती हैं।
खस की जड़ से निकलने वाला सुगंधित तेल (खस का तेल) अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 1500-2000 रुपये प्रति किलोग्राम तक बिकता हैं। एक हेक्टेयर में 80-100 क्विंटल जड़ आसानी से मिल जाती हैं। यानी सिर्फ तेल से ही 1.20 से 2 लाख रुपये तक की सालाना कमाई होगी।
इसके अलावा जड़ से इत्र, अगरबत्ती, सुगंधित साबुन, कॉस्मेटिक उत्पाद बनाए जाते हैं। गर्मी में खस की जड़ डालकर बनने वाला शर्बत (वेटीवर शरबत) शहरों में तेजी से लोकप्रिय हैं। यह आयुर्वेद में मानसिक तनाव, अनिद्रा, त्वचा रोग और ब्लड सर्कुलेशन के लिए प्रमाणित दवा हैं।
बिहार सरकार के कृषि विभाग और औषधीय पौध बोर्ड ने खस को ‘वैकल्पिक फसल’ का दर्जा दे दिया हैं। मगही पान अनुसंधान केंद्र किसानों को मुफ्त में स्लिप (पौध सामग्री) उपलब्ध करा रहा हैं। साथ ही खरीद की गारंटी भी दी जा रही हैं। वैज्ञानिक दास ने बताया कि अगले दो साल में हम दक्षिण बिहार के 10 हजार हेक्टेयर में खस की खेती का लक्ष्य रखा हैं।
इस्लामपुर के ही रहने वाले प्रगतिशील किसान रंजीत कुमार ने पिछले साल आधा एकड़ में प्रयोग किया था। उन्होंने बताया कि पहले धान-गेहूं में मुश्किल से 25-30 हजार बचता था। खस लगाने के बाद पहली कटाई में ही 70 हजार रुपये हाथ आए। अब पूरा खेत खस से भरने जा रहा हूँ।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में जहां हर साल फसल अनिश्चित हो गई हैं, वहां खस की खेती बिहार के किसानों को न सिर्फ आर्थिक सुरक्षा दे रही हैं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी बड़ा योगदान दे रही हैं।









