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बिहारशरीफ विधानसभाः 40 साल बाद कांग्रेस और भाजपा में कांटे की टक्कर

बिहारशरीफ (नालंदा दर्पण)। नालंदा जिले की बिहारशरीफ विधानसभा सीट, जो सदियों से राजनीतिक प्रयोगशाला रही है। इस बार 1985 के बाद पहली बार कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच कांटे की टक्कर का गवाह बनने जा रही है। पिछले चार दशकों से यह सीट मुख्य रूप से राष्ट्रीय जनता दल (राजद) या महागठबंधन के किसी घटक दल के उम्मीदवारों के बीच ही सीमित रही, लेकिन 2025 के विधानसभा चुनाव में समीकरण पूरी तरह बदल गए हैं।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने इस सीट को अपने खाते में दर्ज कर भाजपा ने अपने पारंपरिक समर्थन आधार को ध्यान में रखते हुए निवर्तमान विधायक डॉ. सुनील कुमार को ही टिकट थमाया है। वहीं महागठबंधन की ओर से कांग्रेस को लगभग 40 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद यहां से मैदान में उतरने का मौका मिला है, जहां से ओमैर खान पार्टी की किस्मत संभाल रहे हैं।

यह मुकाबला इसलिए भी रोचक हो गया है, क्योंकि निर्दलीय उम्मीदवार मनोज तांती और जनसुराज पार्टी के दिनेश कुमार के मैदान में कूदने से एनडीए के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगने की आशंका पैदा हो गई है। इसी तरह पूर्व विधायक पप्पू खान, जिन्हें इस बार टिकट नहीं मिला, निर्दलीय या अन्य रूप में महागठबंधन के वोटों को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

भाजपा-जनता दल (यू) गठबंधन इस सीट को अपना ‘अजेय किला’ बनाए रखने की रणनीति पर जोर दे रहा है, जबकि राजद-कांग्रेस महागठबंधन पुराने वोट बैंक को एकजुट करने में जुटा हुआ है। दोनों गठबंधन अपने-अपने समर्थकों को सुरक्षित रखने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं। फिलहाल मैदान में 10 प्रत्याशी हैं, जो लगातार जनसंपर्क अभियान चला रहे हैं। यही वजह है कि वोटों का बंटवारा दोनों पक्षों के लिए चुनौती बन गया है, जिसने इस सीट को राज्य की सबसे दिलचस्प और निर्णायक लड़ाई में बदल दिया है।

इस बार का चुनाव स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित है। अधिकारियों की मनमानी, कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार, युवाओं के लिए रोजगार की कमी, अपराध पर नियंत्रण, शिक्षा की गुणवत्ता और स्थानीय विकास जैसे विषय मतदाताओं के बीच चर्चा का केंद्र बने हुए हैं।

डॉ. सुनील कुमार अपने पिछले कार्यकाल के विकास कार्यों को हथियार बना रहे हैं, जबकि ओमैर खान कांग्रेस के पुराने गढ़ को पुनर्जीवित करने और महागठबंधन की एकता पर जोर दे रहे हैं। निर्दलीय और छोटे दलों के उम्मीदवार इन मुद्दों को उठाकर असंतुष्ट वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, जो अंतिम परिणाम को अनिश्चित बना रहा है।

बता दें कि बिहारशरीफ विधानसभा सीट न केवल नालंदा जिले, बल्कि पूरे बिहार की राजनीति में अपनी ऐतिहासिक भूमिका के लिए मशहूर है। 1952 के पहले विधानसभा चुनाव से लेकर आज तक यह सीट कांग्रेस, वामपंथी दलों, जनता दल, राजद और अब भाजपा-जद(यू) गठबंधन जैसी प्रमुख पार्टियों की राजनीतिक प्रयोगशाला बनी रही है।

आजादी के बाद के शुरुआती दौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का यहां पूरा दबदबा था। 1952 और 1977 में मोहम्मद अकील सैयद ने जीत हासिल की, जबकि 1960 और 1962 में सैयद वासीउद्दीन अहमद विधायक बने। यह वह समय था जब कांग्रेस के ‘राष्ट्र निर्माण’ के नारे ने पूरे बिहार को अपने साथ जोड़ा हुआ था।

साठ के दशक के अंत में वामपंथी विचारधारा का प्रभाव बढ़ा। 1967 और 1969 में बीपी जवाहर ने जीत दर्ज की, जबकि 1977 और 1980 में देवनाथ प्रसाद ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के टिकट पर विजय प्राप्त की। उस दौर में बिहारशरीफ में वर्ग संघर्ष की आवाज सियासी मंच तक पहुंची।

1972 में वीरेंद्र प्रसाद ने भारतीय जनसंघ से चुनाव जीतकर दक्षिणपंथी राजनीति की नींव रखी। 1990 आते-आते जनसंघ भाजपा बन चुका था और देवनाथ प्रसाद ने भाजपा प्रत्याशी के रूप में जीत हासिल की। यह उल्लेखनीय है कि उन्होंने भाकपा छोड़कर भाजपा जॉइन की थी।

1995 में मंडल राजनीति और सामाजिक न्याय की लहर चरम पर थी, जब देवनाथ प्रसाद ने जनता दल से जीत दर्ज की। साल 2000 में सीट राजद के सैयद नौशाद उन नबी के खाते में गई। 2005 के फरवरी और अक्टूबर दोनों चुनावों में डॉ. सुनील कुमार ने जद(यू) के टिकट पर विजय प्राप्त की और यहीं से उनकी लगातार जीतों की शृंखला शुरू हुई। 2010 में फिर जद(यू) से, जबकि 2015 और 2020 में भाजपा प्रत्याशी के रूप में उन्होंने कब्जा जमाया।

निवर्तमान विधायक डॉ. सुनील कुमार ने जद(यू) से अलग होकर भाजपा में शामिल होकर इस परंपरा को आगे बढ़ाया। पिछले दो दशकों से उनका दबदबा कायम है, लेकिन इस बार महागठबंधन के ओमैर खान से उन्हें कड़ी टक्कर मिल रही है।

बहरहाल एनडीए की रणनीति डॉ. सुनील कुमार के व्यक्तिगत प्रभाव और भाजपा के हिंदुत्व आधार पर टिकी है, जबकि महागठबंधन मुस्लिम-यादव और निचले तबके के वोट बैंक को एकजुट करने पर फोकस कर रहा है। निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रवेश वोट बंटवारे का खतरा बढ़ा रहा है।

पप्पू खान जैसे असंतुष्ट नेता महागठबंधन को कमजोर कर सकते हैं तो मनोज तांती और दिनेश कुमार एनडीए के कोर वोटर्स को खींच सकते हैं। दोनों पक्षों के नेता लगातार रैलियां, जनसभाएं और डोर-टू-डोर कैंपेन चला रहे हैं।

बिहारशरीफ की यह लड़ाई न केवल स्थानीय मुद्दों पर, बल्कि राज्य की बड़ी राजनीति पर भी असर डालेगी। क्या 40 साल दशक बाद कांग्रेस पुराना गढ़ वापस हासिल कर पाएगी या भाजपा अपना किला बचाए रखेगी? मतगणना तक सस्पेंस बरकरार रहेगा।

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