
नालंदा दर्पण डेस्क। कल्पना कीजिए कि एक ऐसा नालंदा विश्वविद्यालय जहां सुबह से रात तक नौ सौ कमरों में ज्ञान की ज्योति जलती रहती थी। जहां दूर-दूर से आए विद्वान चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर हर्षवर्धन तक के राजाओं के संरक्षण में बौद्ध दर्शन, चिकित्सा, गणित और ज्योतिष की गहराइयों में उतरते थे। लेकिन 1193 ईस्वी में बख्तियार खिलजी के आग लगाने वाले हमले के आठ सौ साल बाद भी यह प्राचीन ज्ञान का महल नालंदा महाविहार आज भी अपनी कई गुत्थियों को सीने में दबाए हुए है।

दानदाताओं के गुमनाम गांवों से लेकर विशाल परिसर की असली सीमाओं तक और सैकड़ों आचार्यों के नामों की अधूरी सूची तक? ये सवाल इतिहासकारों को रातों की नींद हराम कर देते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) और विशेषज्ञों की नजरों में ये अनसुलझे रहस्य न केवल नालंदा की गौरवगाथा को और समृद्ध कर सकते हैं, बल्कि आधुनिक शोध को नई दिशा भी दे सकते हैं।
नालंदा का इतिहास कोई साधारण किताब का अध्याय नहीं, बल्कि एक जीवंत महाकाव्य है। गुप्त काल से फलता-फूलता यह महाविहार करीब 10वीं शताब्दी तक एशिया का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र था, जहां 10000 से अधिक छात्र और 2000 आचार्य ज्ञान की इस नदी में गोता लगाते थे। लेकिन आज जब हम इसके खंडहरों पर खड़े होकर गुंबदों और स्तंभों को निहारते हैं तो मन में एक सवाल कौंधता है>
यह परिसर कितना विशाल था? इतिहासकारों के अनुसार नालंदा का विस्तार इतना व्यापक था कि यह वर्तमान नालंदा खंडहरों से कहीं आगे बोधगया की ओर फैला हुआ था। तिब्बती ग्रंथों और चीनी यात्री ह्वेनसांग के वर्णनों में तो इसका उल्लेख नौ मंजिला ज्ञान का महल के रूप में मिलता है, लेकिन प्रामाणिक सीमांकन? वह अभी भी एक रहस्य है।
एएसआई के पुरातत्वविदों ने दशकों से खुदाई की है, लेकिन व्यापक सर्वेक्षण की कमी ने इसकी असली तस्वीर को धुंधला कर दिया है। पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के प्रोफेसर रामेश्वर सिंह बताते हैं कि नालंदा का परिसर सिर्फ दिखाई देने वाले खंडहरों तक सीमित नहीं था। संभवतः यह 50 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैला था, जिसमें बगीचे, तालाब और ध्यान कक्ष शामिल थे । लेकिन पुष्टि के लिए ड्रोन मैपिंग और जियो-रडार सर्वेक्षण जैसे आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल अभी प्रारंभिक चरण में है।

एक हालिया अध्ययन में एएसआई ने पाया कि नालंदा के आसपास के गांवों में बिखरे ताम्रपत्र (तांबे के शिलालेख) राजाओं के दान का संकेत देते हैं। लेकिन इन दानदाताओं के मूल गांवों की भौगोलिक पहचान अब तक अस्पष्ट बनी हुई है। उदाहरण के लिए पाल वंश के राजा देवपाल ने नालंदा को सैकड़ों गांव दान में दिए थे, लेकिन वे गांव आज कहां हैं? क्या वे नालंदा जिले के राजगीर या बिहारशरीफ के आसपास छिपे हुए हैं?
और फिर आचार्यों की वह अनकही परंपरा? ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत सी-यू-की में धरमपाल, शीलभद्र और नागार्जुन जैसे प्रमुख विद्वानों का जिक्र किया है। जबकि इत्सिंग ने 7वीं शताब्दी में नालंदा के महान आचार्यों की प्रशंसा की। तिब्बती बौद्ध ग्रंथों में तो सैकड़ों नाम बिखरे पड़े हैं, लेकिन पूरी सूची? वह एक असंभव सपना सा लगता है।
नालंदा पर एक पुस्तक लिख रही दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर अनीता शर्मा कहते हैं कि नालंदा में शताब्दियों तक सक्रिय यह विद्वत मंडली एशिया के बौद्ध जगत का केंद्र थी। लेकिन उनके नाम, उनके योगदान और यहां तक कि प्रशासनिक ढांचे जैसे कि उपाध्याय’ (सहायक शिक्षक) और महासन्निधि’ (प्रधान) की भूमिकाओं के बारे में हमारी समझ आधी-अधूरी है।
विशेषज्ञों का मानना है कि ये कमी इसलिए है, क्योंकि गहन समन्वित शोध की कमी रही। नालंदा के पुस्तकालय धर्मगंज में लाखों हस्तलिखित ग्रंथ जलकर राख हो गए और जो बचा, वह तिब्बत या चीन के मठों में बिखरा पड़ा है।
इन रहस्यों को सुलझाने की उम्मीद अब नई पीढ़ी के शोधकर्ताओं से है। नव नालंदा महाविहार मिशन विश्वविद्यालय (एनएनएमयू) के पाली विभागाध्यक्ष प्रोफेसर विश्वजीत कुमार का कहना है कि नालंदा साहित्य महोत्सव जैसे मंच इन अनसुलझे सवालों पर गहन विमर्श का सही अवसर हैं।
प्रो. कुमार के अनुसार यहां दानदाताओं के गांवों की मैपिंग, विश्वविद्यालय की सीमाओं पर जीआईएस-आधारित सर्वेक्षण और आचार्यों की ऐतिहासिक सूची तैयार करने वाले नए शोध को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह न केवल इतिहास की टूटे हुए धागों को जोड़ेगा, बल्कि नालंदा को यूनेस्को की सांस्कृतिक विरासत के रूप में और मजबूती से स्थापित करेगा।
फिलहाल नालंदा के ये रहस्य हमें सिखाते हैं कि ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता, बस छिपा रहता है। जैसे-जैसे आधुनिक तकनीक और शोध आगे बढ़ रहे हैं। शायद अगले कुछ वर्षों में ये गुत्थियां खुलेंगी। तब तक नालंदा के खंडहर हमें चुपचाप बुलाते रहेंगे अपनी अनकही कहानियों को सुनाने के लिए।










