
नालंदा दर्पण डेस्क। जेठियन से राजगीर की ओर बढ़ते हुए पहाड़ी रास्तों पर बौद्ध भिक्षुओं के कदमों की गूंज नालंदा की प्राचीन भूमि को जीवंत करती है। यह वही पथ है, जिसे कभी भगवान बुद्ध ने बोधगया से राजगीर जाते समय अपनाया था।
हरे-भरे पहाड़, शांत वादियाँ और भिक्षुओं के परंपरागत वस्त्र इस दृश्य को एक आध्यात्मिक और ऐतिहासिक रंग प्रदान करते हैं। आज इस मार्ग पर सड़कें और रेल की सुविधाएँ हैं। फिर भी भिक्षुओं की वार्षिक तीर्थयात्रा नालंदा के उस स्वर्णिम युग को जीवित रखती है, जब यह भूमि विश्व की विद्या की राजधानी थी।
नालंदा का नाम सुनते ही एक ऐसी छवि उभरती है, जहाँ प्राचीन काल में विद्वान और साधक विश्व भर से ज्ञान की खोज में आते थे। पाँचवीं से बारहवीं शताब्दी तक नालंदा विश्वविद्यालय ने बौद्ध दर्शन, गणित, खगोलशास्त्र और चिकित्सा जैसे विषयों में शिक्षा का प्रकाश फैलाया। यहाँ के पुस्तकालय को धर्मगंज कहा जाता था। जिनमें लाखों पांडुलिपियाँ थीं।
हर साल बौद्ध भिक्षु जेठियन से राजगीर तक की इस तीर्थयात्रा को जीवंत करते हैं। यह यात्रा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि नालंदा के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को सहेजने का प्रयास है। आधुनिक युग में सड़क और रेल की सुविधाएँ इस मार्ग को सुलभ बनाती हैं। फिर भी भिक्षु पैदल चलना पसंद करते हैं। इसे भक्ति के प्रतीक से अधिक अतीत के प्रति सम्मान ही कहा जाएगा।
वर्ष 2014 में पुनर्जनन के बाद नालंदा विश्वविद्यालय एक बार फिर ज्ञान का केंद्र बन रहा है। आधुनिक पाठ्यक्रमों के साथ यह प्राचीन मूल्यों को सहेजते हुए वैश्विक शिक्षा का मंच प्रदान करता है। यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल यहाँ के खंडहर और नया विश्वविद्यालय मिलकर नालंदा की कहानी को फिर से विश्व पटल पर स्थापित करने में जी जान से जुटा है।









