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सिद्धपीठ और बौद्ध इतिहास का अद्भुत संगम स्थल है माघरा

बिहारशरीफ (नालंदा दर्पण)। बिहारशरीफ नगर से महज पांच किलोमीटर की दूरी पर बसा माघरा गांव एक ऐसा स्थान है, जहां आध्यात्मिकता और ऐतिहासिकता का अनूठा संगम देखने को मिलता है। स्थानीय लोग इसे प्रायः मघड़ा या माघड़ा के नाम से पुकारते हैं।यह गांव न केवल शीतला माता के सिद्धपीठ के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि बौद्ध इतिहास के गहरे निशान भी यहां मौजूद हैं। माघरा के शीतला माता मंदिर और इसके समीप स्थित तालाब श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र हैं, जबकि इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि विद्वानों और इतिहास प्रेमियों को आकर्षित करती है।

माघरा का शीतला माता मंदिर एक सिद्धपीठ के रूप में विख्यात है। स्थानीय मान्यता के अनुसार भगवान शंकर ने माता सती के अवशेष को एक घड़े में रखकर पंचाने नदी के पश्चिमी तट पर धरती में छिपाया था। कई वर्षों बाद, माता ने राजा वृक्षकेतु को स्वप्न में दर्शन दिए और अपनी प्रतिमा की उपस्थिति का रहस्योद्घाटन किया।

राजा के आदेश पर जब उस स्थान की खुदाई की गई तो माता की प्रतिमा प्राप्त हुई। बाद में पास में ही एक भव्य मंदिर का निर्माण कर माता को वहां स्थापित किया गया। यही मंदिर आज माघरा के शीतला माता मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह स्थान श्रद्धालुओं के लिए आस्था और चमत्कारों का केंद्र है, जहां हर वर्ष हजारों लोग माता के दर्शन के लिए आते हैं।

माघरा का महत्व केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और बौद्ध परंपरा के संदर्भ में भी है। अप्रैल 1235 में तिब्बती बौद्ध भिक्षु धर्मस्वामी इस स्थान पर आए थे। उनकी आत्मकथा (बायोग्राफी ऑफ धर्मस्वामी: 1197-1264) में माघरा और इसके आसपास के क्षेत्र का विस्तृत वर्णन मिलता है।

धर्मस्वामी के अनुसार माघरा के निकट उदंतपुरी महाविहार था, जो नालंदा से एक दिन की दूरी पर स्थित था। उदंतपुरी में धर्मस्वामी अपने गुरु राहुल श्रीभद्र से संस्कृत व्याकरण सीखने आए थे।

उस समय उदंतपुरी मुस्लिम फौजियों के कब्जे में था। एक दिन विहार के संरक्षक ब्राह्मण जयदेव को मुस्लिम सैनिक पकड़कर ले गए। कुछ समय बाद जयदेव के एक संदेशवाहक ने गुरु राहुल श्रीभद्र को चेतावनी दी कि सभी को वहां से भाग जाना चाहिए, अन्यथा उनकी जान को खतरा है।

नब्बे वर्ष की आयु में गुरु राहुल श्रीभद्र के पास उस समय केवल 70 शिष्य थे। इस संकट के समय सभी शिष्य भाग गए, सिवाय एक के धर्मस्वामी। धर्मस्वामी ने अपने गुरु को अकेला छोड़ने से इनकार कर दिया और उन्हें अपने कंधे पर उठाकर सुरक्षित स्थान की ओर ले गए।

धर्मस्वामी और उनके गुरु उदंतपुरी से दक्षिण-पश्चिम दिशा में एक बौद्ध विहार की ओर गए, जो एक रक्षक देवता को समर्पित था। इस विहार में एक चमत्कारिक मूर्ति थी, जिसे ज्ञाननाथ के नाम से जाना जाता था। गुरु राहुल श्रीभद्र ने बताया कि यह मूर्ति सीतवन के श्मशान में एक पत्थर पर चमत्कारिक रूप से प्रकट हुई थी और आर्य-नागार्जुन ने इसे खोजा था।

इस मूर्ति का स्वरूप अनोखा था- एक मुख, चार भुजाएं और आकार में एक बिल्ली से थोड़ा बड़ा। इसका रंग हरा था, लेकिन जब लोग इसकी नाभि को अपने माथे से स्पर्श करते थे, तो यह मटर के भूसे जैसे रंग की प्रतीत होती थी।

धर्मस्वामी के अनुसार तुरुक (मुस्लिम) सैनिकों ने सोने-चांदी की खोज में इस मंदिर के पत्थरों को उखाड़ फेंका था और मूर्ति पर अशुद्ध सामग्री डाल दी थी। लेकिन इस अपवित्रता में शामिल एक सैनिक की उसी दिन पेट दर्द से मृत्यु हो गई। अगली सुबह मूर्ति को अक्षुण्ण पाया गया। इस चमत्कार के बाद, तुरुक सैनिकों ने दैवीय शक्ति के भय से इस मंदिर की ओर दोबारा झांकने की हिम्मत नहीं की।

धर्मस्वामी का वर्णन बताता है कि ज्ञाननाथ मंदिर और उदंतपुरी विहार माघरा के आसपास ही थे। ज्ञाननाथ मंदिर को उदंतपुरी के दक्षिण-पश्चिम में और सीतवन (श्मशान भूमि) के रूप में वर्णित किया गया है।

आज भी माघरा के शीतला माता मंदिर के उत्तर में एक बड़ा तालाब और बंजर भूमि के अवशेष मौजूद हैं, जो संभवतः बौद्ध विहार के साक्ष्य हो सकते हैं। पांच दशक पहले, इस क्षेत्र में एक हरा-भरा आम्रवाटिका और विशाल श्मशान भूमि थी, जहां बड़े मेले का आयोजन होता था।

माघरा न केवल एक धार्मिक स्थल है, बल्कि बौद्ध इतिहास और संस्कृति का एक जीवंत दस्तावेज भी है। शीतला माता का सिद्धपीठ और ज्ञाननाथ मंदिर की कहानियां इस स्थान को आध्यात्मिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण बनाती हैं।

यह स्थान नालंदा के गौरवशाली अतीत और बिहार की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। माघरा की यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम अपनी ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षित करने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रहे हैं? क्या माघरा जैसे स्थानों को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने के लिए और अधिक शोध और प्रचार की आवश्यकता नहीं है?

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