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कभी खेतों के सीने को चीरती छुक-छुक गुजरती थी फतुहा-इस्लामपुर छोटी लाइन पर मार्टिन की रेल

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Past Martins train on the Fatuha Islampur short line used to pass through the chest of fields 1नालंदा दर्पण डेस्क (ब्यूरो)। कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर फतुहा -इस्लामपुर के बीच चलने वाली मार्टिन की रेल की कुछ तस्वीरें खूब वायरल हो रही है। तस्वीरें कुछ खास ही नहीं अतीत की गौरवशाली यादों को भी ताजा कर दिया।

आजादी के पहले और आजादी के बाद 1984 तक मार्टिन बर्न की लाइट रेल खेतों के सीने को चीरती और छुक छुक कर चलती रही। लेकिन अब यह अतीत का हिस्सा मात्र रह गई है। एक समय ‘मार्टिन लाइट रेलवे’ पूरे भारत में सात शाखाओं का संचालन करती थी।

बिहार की राजधानी के पूर्व एवं पश्चिम क्रमशः फतुहा एवं आरा में मार्टिन बर्न नामक अंग्रेज ने क्रमशः 1919 एवं 1905 में लाइट रेलवे की बुनियाद डाली थी। जिसके अंतर्गत आठ डिब्बों से युक्त छह बार दो अदद गाड़ियां चलती थी।

आजादी के बाद यह कंपनी विदेशी नहीं रह गई थी वरन् इसके संचालकों में राज्य और केंद्र दोनों सरकारें समान रूप से भागीदार बन गए। 1922 में फतुहा से इस्लामपुर के  बीच खोला गया। रेलवे 2फीट 6इंच(762 मिमी)नैरो गेज में बनाया गया था। इसकी कुल लंबाई 43 किमी (27मील) थी। रेलवे लगभग अपने पूरे मार्ग के लिए सड़क कै समानांतर चलती थी।

नालंदा धान और दलहन खासकर मसूर की खेती के लिए मशहूर रहा है। फतुहा और बाढ़ पटना के पूर्व में पहले गंगा नदी मार्ग से और बाद में ने रेल मार्ग से अनाज व्यापार का स्थापित केंद्र रहा है। मगध का अनाज खासकर कई किस्म का चावल तथा मंसूर की छांटी कलकत्ता से लेकर ढाका तक भेजा जाता था।

जब 1922 में कलकत्ते की मार्टिन कंपनी ने फतुहा से इस्लामपुर , 42 किलोमीटर तक छोटी रेल लाईन ( नैरो गेज) निर्माण किया। फलतः लोग और साज- सामान की ढुलाई और आसान हो गयी।

1923 से 1976 तक निर्बाध ढंग से निजी कंपनी की मार्टिन लाईट रेल सेवा चलती रही।छोटी लाइन की रेल सेवा पर भारत की आजादी का कोई असर नहीं पड़ा। जैसे गुलाम भारत में यह सेवा थी वैसी हीं आजाद भारत में ।

1923 के मैनचेस्टर , इंगलैंड के बने वाष्प  इंजन से गाडी दुलकी चाल में चलती रही। सितंबर 1976 में फल्गू और पुनपुन नदी में आई बाढ़ की विभीषिका ने छोटी लाइन की पटरी को सिन्गरिआवा और फतुहा के बीच बुरी तरह से बर्बाद कर दिया। ट्रेन सेवा ठप्प हो चुकी थी। तबतक मार्टिन कंपनी अपने भी अपने बुरे दौर से गुजर रही थी।

बाढ़ सहायता कोष से सरकारी सहायता न मिलने के बाबजूद किसी तरह फतुहा और इस्लामपुर के मध्य फतुहा से तीन  स्टेशनों के बाद स्थित डियावा से इस्लामपुर तक ही लाइनों को ठीक किया जा सका। 10 मार्च,1977 से उक्त मार्ग पर लाइट रेलवे का परिचालन फिर से शुरू हो गया।

लेकिन इस लाइन की नियति में अपने दुर्दिन देखना था।इस लाइट रेलवे से संबद्ध लगभग एक हजार कर्मचारियों ने वेतन वृद्धि,ठीक समय पर वेतन भुगतान,ले आफ परंपरा का अंत, स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाओं को लेकर 25 भी,1977 से व्यापक हड़ताल शुरू कर दी।

जब हड़ताल खत्म हुई तो 1980 और 1983 में लगातार बाढ़ ने इसकी पटरियां तहस -नहस कर दी। लगातार बाढ़ की विभीषिका से दो चार हो रही फतुहा – इस्लामपुर रेल मार्ग को बाद में 1984 में इस रेल लाइन को स्थायी रूप से बंद करने का फैसला किया। 1986 में भारतीय रेलवे ने इसे अपने अधिकार में ले लिया।

हालांकि 1970 में तत्कालीन रेलमंत्री गुलज़ारीलाल नन्दा ने एक ऐसी व्यवस्था की थी कि मार्टिन रेलवे के बंद हो जाने पर उसके कर्मचारियों को भारतीय रेल सेवा में काम पर रख लिया जाएगा। फतुहा -इस्लामपुर छोटी लाइन को चालू करने की मांग को लेकर लंबें समय तक लोगों ने आंदोलन भी किया।

बाढ़ से तत्कालीन सांसद नीतीश कुमार ने लोकसभा में विषय नियम 1977 के अधीन 19 अप्रैल,1990 में इस मामले को उठाते हुए उन्होंने कहा कि “पूर्व रेलवे में फतुहा -इस्लामपुर लाइट रेलवे की गेज बाढ़ से रेल पटरियों के कुछ दूर तक क्षतिग्रस्त होने के कारण बंद पड़ी है। इस रेल सेवा को चालू करने के लिए स्थानीय लोग आंदोलन कर रहे हैं। इस रेल सेवा के बंद रहने के कारण यात्रियों को आने जाने तथा माल ढुलाई में काफी असुविधा होती है।

मेरा सरकार से अनुरोध है कि जनहित में तत्काल फतुहा -इस्लामपुर रेल सेवा को चालू किया जाए तथा छोटी लाइन को बड़ी लाइन में परिवर्तित किया जाए।”

लेकिन कौन जानता था कि 23 साल पहले लोकसभा में फतुहा -इस्लामपुर रेल लाइन की बदहाली पर प्रश्न करने वाले सांसद नीतीश कुमार के हाथों ही इस रेल लाइन का उद्धार होगा। अब नालंदा के लोगों को देश की राजधानी का सफर काफी आसान हो गया। चाहें तो इस्लामपुर, हिलसा या दनियावां में मगध एक्सप्रेस पर बैठेंगे तो सीधे देश की राजधानी दिल्ली उतरेंगे।

लेकिन देखा जाए तो फतुहा -इस्लामपुर रेल के आयाम परिवर्तन के बीच पलायन भी बढ़ा है। ऐसा लगता है कि अगर ब्रिटिश काल में फतुहा -इस्लामपुर मार्टिन लाइट रेल मगहिया चावल और मसूर छांटी दाल कलकत्ता भेजने के लिए बनी थी तो इस दौर में मगहिया कुशल और अकुशल श्रमिकों को उतरी भारत खास कर दिल्ली भेजने के लिए बनायीं गयी है।

बहरहाल 70-80 के दशक के दौर में मार्टिन लाइट रेल लोगों के लिए काफी कौतूहल था।उस पर यात्रा करना किसी रोमांच से कम नहीं था। लेकिन वह दौर कभी लौट कर नहीं आएगा। अब मार्टिन लाइट रेलवे अतीत बन गया है।उसकी छुक -छुक की आवाज खेतों के सीनों को नहीं चीर पाती है। उसकी सीटी अब यात्रियों को नहीं बुलाती है।

उस दौर के जवानी की दहलीज पर खड़े युवाओं को बेशक आज वह दौर याद होगा। जो आज अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर है।अंत में अंजुम रहबर के शब्दों में,

‘अंजुम तुम्हारा शहर जिधर है उसी तरफ, एक रेल जा रही थी कि तुम याद आए…

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