नालंदा दर्पण डेस्क। “थक गए हैं किरदार निभाते-निभाते, तेरे रंग मंच पर जिंदगी। नाटक ये मुसीबतों वाला काश, अंतिम पड़ाव पर हो”
कुछ यही सच्चाई चंडी प्रखंड मुख्यालय में कभी नाट्य कला को जीवंत रखने वाले नाट्य कलाकारों पर फीट बैठती है।
चंडी प्रखंड के ग्रामीण अंचलों में त्योहारों के मौके पर नाटक मंचन की परंपरा अब लगभग लुप्त हो चुकी है। अब गांवों में नाटकों का मंचन नहीं होता है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अपनी जीवनी में उल्लेख किया है कि बचपन में श्रवण कुमार और सत्य हरिश्चन्द्र जैसे नाटकों ने उनके जीवन पर असर डाला था। जाहिर है, बालक मोहनदास करमचंद गाँधी के व्यक्तित्व के आरंभिक निर्माण में नाटकों ने नींव डालने का काम किया था।
कभी चंडी प्रखंड मुख्यालय स्थित चंडी डीह,लक्ष्मी पूजा समिति और भारत माता समिति दुर्गापूजा, लक्ष्मी पूजा के मौके पर नाटकों के लिए जाना जाता था। पहले लोग सपरिवार नाटक देखने पहुंचते थे। अब न नाटक होते है, न ही लोग जुटते हैं।
नाट्य कला की पुरानी परंपराएँ अब विलुप्त होती जा रही है। अब ऐसे धार्मिक मौकों पर आर्केस्टा की आड़ में फूहड नाच-गाने का प्रचलन ज्यादा बढ़ गया है।
दुर्गा पूजा और नाटक एक दूसरे के पर्याय थे। तब बिना नाटक मंचन के दुर्गा पूजा की कल्पना नहीं होती थी। पहले नाटक पेट्रोमैक्स की रोशनी में बिना कोई ध्वनि विस्तारक यंत्र के ही नाटकों का मंचन होता था। 7 बजे शाम से घरों से लोग अपने-अपने बाल-बच्चों के साथ नाटक देखने के लिए रंगमंच के सामने जमीन पर बैठ जाते थे और रात भर नाटक देखते थे।
चंडी प्रखंड मुख्यालय तथा आसपास के ग्रामीण इलाकों में एक समय पर्व-त्योहार के अवसर पर नाटक मंचन अनिवार्य होता था।जिसकी तैयारी एक माह पहले से चलती रहती थी।मुख्यालय में दुर्गा पूजा तथा लक्ष्मी पूजा के दौरान नाटक अपने चरमोत्कर्ष पर था।
चंडी प्रखंड का कोरूत एक समय नाटकों के लिए ही जाना जाता था।कहा जाता है कि चंडी में नाट्य कला की शुरुआत ही कोरूत में हुई थी। आजादी के बाद के साल से ही कोरूत में नाटक मंचन का शुरूआत हो चुका था। यहाँ के मंगल शर्मा नाटक के एक बेहतरीन कलाकार और गायक थे। जो पूरे इलाके में लोकप्रिय थे। साथ ही रूपलाल तांती जो नाटकों में स्त्री पात्र की भूमिका निभाते रहे। उनके अभिनय के भी लोग कायल थें।राम प्यारे सिंह भी नाटक के मंझे हुए कलाकार थे। यहीं से रंगमंच की शुरुआत कई गांव में हुई।
चंडी प्रखंड मुख्यालय में नाटक की शुरुआत चंडी डीह पर से हुई।आरंभ में छात्र सरस्वती प्रतिमा स्थापित कर नाटक का मंचन करते थे। लेकिन 80 के बाद से यहाँ नाटक का स्वरूप बदल गया। दुर्गा पूजा के दौरान नाटक का मंचन वृहद रूप से होने लगा। वैसे यहाँ पहले 1951 से नौटंकी हुआ करती थी। लेकिन बीच में नौटंकी बंद होने के बाद कुछ उत्साही युवाओं ने सरस्वती पूजा के उपलक्ष्य में नाटक शुरू किया।
रंगमंच में बचपन से जुड़े रहें सेवानिवृत्त प्रधानाध्यपक रवीन्द्र प्रसाद ने बताया कि आरंभ में बच्चे ही नाटक का मंचन करते थे। लेकिन बाद में वे और उनके मित्र प्रो राजेश्वर प्रसाद ने सोचा कि इन बच्चों को नाट्य मंचन के बारे में दिशा निर्देश दिया जाएं।वहाँ से और लोग भी नाटकों में रूचि लेने लगे।
बाद में चंडी डीह के ही विमल प्रसाद उर्फ महंथजी, साधु शरण चौधरी, भूषण प्रसाद, मो खुर्शीद अहमद कृष्णा प्रसाद, सत्येन्द्र कुमार पासवान, सीताराम चौधरी, कृष्ण चौधरी, दिवंगत राजेंद्र प्रसाद, शिवन प्रसाद, अनिल कुमार, ब्रजेश कुमार, रियाज अहमद, रविकांत सिंह, शिवकांत सिंह, उमाकांत सिंह जैसे कलाकार जुटते चले गये।
धीरे-धीरे चंडी डीह में दुर्गा पूजा के दौरान नाटकों की लोकप्रियता बढ़ने लगी।दर्शक कुछ कलाकारों के अभिनय को देखने के लिए आने लगे। बाद में लक्ष्मी पूजा के दौरान भी चूडी मंडी में नाटक की शुरुआत हुई। वहीं चंडी स्थान में दो दशक तक फाइव स्टार मीजिया क्लब ने भी नाट्य परंपरा को जीवित रखा।
कई नाट्य कलाकारों ने नाटक लिखे और निर्देशित भी किया। रवीन्द्र प्रसाद द्वारा लिखे नाटक ‘जगत सिंह’ और ‘अपराधी कौन’ शामिल है।
वही प्रो राजेश्वर प्रसाद ने ‘चक्रव्यूह’,’ कलिंग विजय’, ‘हुमायू’, ‘शाही तख्त’ जैसे कई नाटक लिखें और निर्देशित भी किया।’ शाही तख्त’ नाटक की लोकप्रियता पूरे क्षेत्र में थी। साथ ही दहेज प्रथा, समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ जैसे नाटक होते थें।
धीरे-धीरे चंडी प्रखंड में नाटकों के प्रति लोगों का रूझान खत्म होने लगा।इस संबंध में सेवानिवृत्त प्रधानाध्यापक रवीन्द्र प्रसाद कहते हैं कि एक समय युवाओं में नाटकों को लेकर उत्साह रहता था। लेकिन नई पीढ़ी के आने के बाद अब वह बात नहीं रहीं।आर्केस्टा,बार बालाओं का डांस ही अब रह गया है। समाज में इस तरह के कार्यक्रम से प्राचीन संस्कार भी खत्म हो रहा है। सामाजिक जीवन में बड़े -छोटे का आदर्श भी खत्म हो चुका है।
लंबे समय तक महंथ रहें विमल प्रसाद कहते हैं कि टीवी और लोगों के पास समयाभाव की वजह से नाटक कला लुप्त होते जा रही है। साथ ही आज कोई भी पुरुष स्त्री पात्र का रोल नहीं करना चाहता है।
चंडी में पिछले दो दशक में नाट्य कला बिलकुल ही मृत हो गई।नई पीढ़ी के हस्तक्षेप के बाद से पुराने नाट्य कलाकारों ने मुँह मोड़ लिया। नये लोगों में अब नाटक के हूनर और अभिनय क्षमता भी नहीं रही।
इन्हीं पुराने लोगों से अभिनय सीखकर आज रविकांत सिंह बिहार ही नहीं बल्कि देश के कई राज्यों में अपने अभिनय के जलबे दिखा रहें हैं। बाद के सालों में प्रो राजेश्वर प्रसाद ने कई शैक्षणिक संस्थानों में नाट्य कला को जीवित रखा।
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