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Wednesday, November 29, 2023
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    ‘चंद्रावती’ को भूल गई उनके ही बुनियाद का पत्थर

    नालंदा दर्पण डेस्क। यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं जीवन न रहे, यदि इच्छा है तो यह है, जग में अमन शांति, सुख-समृद्धि बना रहे।’ यह इच्छा एक ऐसे शख्सियत की थी, जिनका नाम चंद्रावती था। चंद्रावती महज एक औरत नहीं, जंगे आजादी की एक अहम किरदार थी।

    शोषितों के हक-हकूक की परचम थी। हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल थी। सामाजिक बदलाव की एक सजग प्रहरी थी। अपने गाँव-जेवार में शिक्षा का अलख जगाने वाली महिला महिला थी।

    अगर आज खेत-खलिहान, छप्पर-खपरैल, गाँव-जेवार और गरीबों-शोषितों के आशियाने आज रोशनी से दमक रहे हैं तो उन जैसे लोगों के लिए चंद्रावती के सेवाओं का प्रतिफल है।

    जनसाधारण का बहुत बड़ा कल्याण किया और पढ़ने-लिखने वालों की सेवा की। उन्होंने अपना सर्वत्र जीवन और धन समाज हित में लगा दी। जिसकी मिसाल मिलनी कठिन है। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण है राजकीयकृत+2 चंद्रावती उच्च विद्यालय। चंद्रावती अपने समय और क्षेत्र की पहली महिला थी, जिन्होंने स्कूल का निर्माण करवाई।

    हिलसा के लोहंडा विष्णुपुर गाँव में सन् 1963 में एक स्कूल का निर्माण किया गया। जिसका श्रेय इसी गाँव की एक समाज सुधारक चंद्रावती देवी को जाता है। जिनकी अपने जीवन में उत्कृष्ट अभिलाषा थी कि गाँव में एक स्कूल बने। ताकि लड़कियां शिक्षित हों।

    उन्होंने लड़कियों की शिक्षा के लिए लोगों को  जागरूक करने का अभियान भी चलाया।  इसीलिए उन्होंने अपने पैतृक गांव हिलसा के चंद्रकुरा में अपनी जमीन बेचकर उन्होंने विष्णपुर में स्कूल के निर्माण के लिए जमीन खरीदी।

    सिर्फ उन्होंने जमीन ही नहीं खरीदी बल्कि अपने पैसे से इसका निर्माण भी किया। जब स्कूल का निर्माण हुआ तो वह इसकी पहली सचिव बनाई गई। उन्होंने स्कूल को चलाने के लिए लोगों से योगदान की मांग की।

    उन्होंने पढ़े -लिखे लोगों को खोजकर अपने स्कूल में शिक्षक के रूप में भर्ती की। कमिटी बनाकर स्कूल चलाने लगी। स्कूल बन जाने से दूर-दराज गाँव के बच्चों के शिक्षा सुलभ हो गई। इनके हाथों संचालित हुई स्कूल ने कई गाँव तक शिक्षा का उजियारा फैलाया। दिन-रात एक कर इस स्कूल को मजबूत आधार प्रदान की।

    वर्ष 1962 में डा रामराज सिंह जब पहली बार चंडी विधानसभा से विधायक बने। चंद्रावती का उनसे परिचय बढ़ते चला गया। फिर उनके स्कूल को एक पहचान मिलने लगी। उनके साथ मिलकर सामाजिक काम करने लगी। लोगों की समस्याओं का समाधान करने लगी।

    कहतें है कि चंद्रावती ने जिस इमारत को बुलंद की, बुनियाद का पत्थर उसे भूल गई। चंद्रावती ने अपने खून-पसीने से जिस इमारत को खड़ा की, वहीं आज उनके योगदान को बिसार चुका है।

    आज स्कूल अपने दो स्वरूप में खड़ा है। एक खंडरनुमा जर्जर इमारत, जिसको देखने के बाद समझा जा सकता है कि यह इमारत कभी बुलंद रही होगी।

    45 साल के बाद इस जर्जर और खपैरल स्कूल की जगह 12वीं वित आयोग द्वारा चार कमरों का निर्माण किया गया। जिसका उद्घाटन 13 अगस्त, 2008को हिलसा के तत्कालीन विधायक रामचरित्र सिंह ने किया। जब हरिनारायण सिंह शिक्षा मंत्री बने तो हाईस्कूल से यह 10+2में बदल गया।

    कहने को भले ही यह इंटर स्कूल है। लेकिन जिस भवन की नींव चंद्रावती ने रखी थी। वह आज भी जर्जर हालत में है। खंडहर में तब्दील है। देखरेख के अभाव में असमाजिक तत्वों का अड्डा बना हुआ है।

    ग्रामीण भी इसे अतिक्रमण किये हुए हैं। जिसकी उपेक्षा करके अलग इंटर स्कूल बना दिया गया। अगर पुराने भवन में ही 10+2 स्कूल बन जाता तो जमीन सुरक्षित रह जाती।इस स्कूल का कभी अपना तालाब भी हुआ करता था। जो आज गाँव वालों के काम आ रहा है।

    चंद्रावती सिर्फ शिक्षा सुधार की बात नहीं करती थी, बल्कि वह समाज के लोगों के लिए भी काम करती थी। चंद्रावती के एक नाती भाजपा नेता मनोज कुमार सिन्हा बताते हैं कि छोटी से लेकर बडे़ विवाद उनके चौपाल पर हल होते थे।

    इस स्कूल के पास ही उनकी चौपाल लगती थी। जिनसे सटे खंडरनुमा एक मस्जिद भी है। जो कभी अजान से गुलज़ार रहती थी। गाँव में कुछ भी हो बडे़ से बड़ा पदाधिकारी पहले उनके सामने ही हाजिरी लगाता था। उनके आदेश की कोई अवहेलना  करने की जुर्रत नहीं करता था।

    किसी दूसरे के दुख को देखकर उनका ह्दय दया से द्रवित हो उठता था। जब वह किसी के कष्ट देखती या कष्ट के बारे में सुनती तो उनमें करूणा की धारा बह निकलती थी। उनके वचन और कर्म स्नेह और सहानुभूति से प्रेरित होते।

    किसी को न्याय दिलाना हो तो हाईकोर्ट तक पहुँच जाती। थाने से लेकर डीएम कार्यालय तक पहुँच जाती थीं। किसी के सुख -दुःख में उसके घर पहुँच जाती।

    अतिथि सत्कार ऐसा कि पूछिए मत। गरीब हो या अमीर सभी के लिए उनके द्वार खुले रहते। कोई भी पदाधिकारी बरास्ते गुजरते उनके मेहमान बने बिना नहीं जाते। बिना भोजन किये उनके घर से कोई चल जाए ऐसा हो नहीं सकता था। हमेशा आने-जाने वालों का तांता लगा रहता था।

    दूर-दराज से जब कोई उनके दरबाजे पर आता नाश्ता-खाना के बगैर नहीं लौटता। उदार इतने कि दोनों हाथों से धन लुटा दिया। न अपने घर की चिंता की न परिवार की। अपनी जीविका के लिए वे एक होम्योपैथी डिंसपेंसरी चलाती थी। उसे भी गरीबों के नाम कर दिया।

    आज यही वजह है कि उनका परिवार फांके में जीवन यापन कर रहा है। खुदार इतने कि उन्होंने जिस स्कूल का निर्माण किया उस स्कूल में अपने परिवार के किसी सदस्य को फटकने तक नहीं दिया।

    उनके द्वारा बहाल शिक्षक-कर्मचारीआज सेवानिवृत्त हो चुके हैं, कई दिवंगत हो चुके हैं। लेकिन अपने घर के लोगों को नौकरी पर नहीं रखा।

    यहाँ तक कि अपने रसूख से कई को दूसरे विभागों में नौकरी लगवा दी। अपनी सारी धन पूंजी दूसरों की भलाई में खर्च कर दी।

    कह सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व रोशनी का एक ऐसा मीनार थी, जो जीवन पथ के पथिको का पथ-प्रदर्शन करता रहता था। वर्ष 1987 में बीमारी से त्रस्त चंद्रावती ने दुनिया  को अलविदा कह गई।

    चंद्रावती ने जिस इमारत को बुलंद की, वहाँ उनके नाम पर कोई प्रतिमा तक नहीं है। उनके एक मात्र पोते सुमन कुमार बताते हैं कि पहले स्कूल के शिक्षक और हेडमास्टर उनके घर भी जाते थे। लेकिन अब नए हेडमास्टर और शिक्षकों को चंद्रावती का इतिहास तक पता नहीं है।

    यही वजह है कि वह अपने ही बनाए धरोहर में उपेक्षित हैं। स्कूल प्रबंधन की उदासीनता ही कहीं जाएगी कि उनके याद में कोई प्रतिमा तक नहीं बनाई गई। वे अपने ही अंजुमन में गुमनाम हैं।

    जबकि, चंद्रावती अपने वक्त का एक पन्ना नहीं थी। वह अपने क्षेत्र की धरोहर थी। एक संपूर्ण किताब थी। किसी ने सही लिखा है- “किसी ने मेरे दिल का दिया जला तो दिया, ये और बात पहले सी रोशनी नहीं रही।”

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