

Bihar Neera Project: The first plant of the state is stalled in Nalanda
नालंदा दर्पण डेस्क। बिहार के नालंदा जिले में नीरा प्रोजेक्ट, जिसे शराबबंदी के बाद वैकल्पिक पेय पदार्थ के रूप में शुरू किया गया था, अब पूरी तरह से ठप पड़ चुका है। मार्च 2017 में पूर्ण शराबबंदी लागू होने के बाद नीरा को एक क्रांतिकारी कदम के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
इस योजना का उद्देश्य न केवल पासी समुदाय को रोजगार प्रदान करना था, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक पेय के रूप में नीरा को स्थापित करना भी था। लेकिन आज यह परियोजना धूल में दबती नजर आ रही है। आइए, इसकी शुरुआत, चुनौतियों और असफलता के कारणों पर एक नजर डालते हैं।
शराबबंदी के बाद बिहार सरकार ने नीरा को एक वैकल्पिक पेय के रूप में बढ़ावा देने की योजना बनाई। 2017 में नीरा उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए पासी समुदाय के 8,000 लोगों को ताड़ी उतारने का लाइसेंस दिया गया।
बिहारशरीफ बाजार समिति में 71.74 लाख रुपये की लागत से राज्य का पहला नीरा प्लांट स्थापित किया गया। इस प्लांट में गुजरात की आईडीएमसी कंपनी की अत्याधुनिक मशीनें लगाई गईं, जिनकी क्षमता प्रति घंटे 2000 बोतलें पैक करने की थी।
जिले के 11 प्रखंडों में 54 नीरा उत्पादक समूह बनाए गए। जिनसे 2268 पासी परिवार जुड़े। इनमें से 878 लोग ताड़ी उतारने के काम में प्रशिक्षित थे। नीरा को विटामिन, मिनरल और पौष्टिक तत्वों से भरपूर बताकर यह दावा किया गया कि यह स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी है और भविष्य में डॉक्टर इसे प्रिस्क्रिप्शन में शामिल करेंगे।
इसके अलावा नीरा से गुड़, पेड़ा, आइसक्रीम, लड्डू, बर्फी, ताल मिश्री और जैम जैसे उत्पाद बनाने की महत्वाकांक्षी योजनाएं भी बनाई गई थीं।
सरकारी आंकड़ों की बात करें तो वर्ष 2017 में 8,000 लोगों को ताड़ी उतारने का लाइसेंस दिया गया। वहीं वर्ष 2018 में लाइसेंस धारकों की संख्या घटकर 5,336 रह गई। वर्ष 2019 में कोई नया पंजीकरण नहीं हुआ। 17 मई से 28 जून तक केवल 11000 लीटर नीरा का उत्पादन हुआ। वर्तमान में बिहारशरीफ का नीरा प्लांट पूरी तरह ठप है। 51 सेलिंग प्वाइंट बंद है। 25 कर्मचारी बेरोजगार हो गए हैं।
प्रोजेक्ट के ठप होने के कारण नीरा प्लांट के लिए प्रतिदिन कम से कम 500 लीटर नीरा की आवश्यकता थी, लेकिन कच्चा माल उपलब्ध नहीं हो सका। प्रोजेक्ट मैनेजर जगत नारायण सिंह के अनुसार कच्चे माल की कमी के कारण चिलिंग प्लांट और सेलिंग प्वाइंट बंद हो गए।
वहीं नीरा संग्रह की जिम्मेदारी जीविका से जुड़े महिला समूहों को दी गई थी। लेकिन सामाजिक रूढ़ियों के कारण महिलाओं के लिए ताड़ के पेड़ों तक पहुंचना और नीरा संग्रह करना मुश्किल हो गया। 10000 लीटर नीरा में से 60% नीरा और 40% अन्य उत्पाद बनाने का लक्ष्य था। लेकिन यह योजना कागजों तक ही सीमित रह गई।
उत्पादन और बिक्री की कमी ने प्रोजेक्ट को और कमजोर किया। प्रारंभिक उत्साह के बाद प्रशासनिक समर्थन और निगरानी की कमी ने नीरा प्रोजेक्ट को पतन की ओर धकेल दिया।
नीरा प्रोजेक्ट की असफलता ने पासी समुदाय के उन हजारों परिवारों को निराश किया है, जिन्हें रोजगार और बेहतर जीवन का सपना दिखाया गया था। प्रशिक्षण और लाइसेंस के बाद भी ये परिवार अब बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं।
वहीं नीरा प्लांट में लगी अत्याधुनिक मशीनें अब गोदाम में धूल खा रही हैं, जिससे सरकारी निवेश का भी नुकसान हुआ है। इसके अलावा नीरा को स्वास्थ्यवर्धक पेय के रूप में स्थापित करने का सपना भी अधूरा रह गया।
वेशक नीरा प्रोजेक्ट की असफलता बिहार में शराबबंदी के बाद वैकल्पिक आजीविका और स्वास्थ्यवर्धक पेय की संभावनाओं पर सवाल उठाती है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस प्रोजेक्ट को पुनर्जनन के लिए कई कदम उठाए जा सकते हैं।
जिसमें नीरा संग्रह और उत्पादन के लिए समुदाय को और अधिक प्रशिक्षित करना, महिलाओं और अन्य समूहों के लिए नीरा संग्रह को आसान बनाने के लिए सामाजिक जागरूकता अभियान चलाना, नीरा और इससे बने उत्पादों की बिक्री के लिए प्रभावी मार्केटिंग और वितरण नेटवर्क स्थापित करना, सरकारी स्तर पर नीरा प्रोजेक्ट को प्राथमिकता देकर नियमित निगरानी और समर्थन प्रदान करना शामिल हैं।
बहरहाल, नीरा प्रोजेक्ट बिहार में शराबबंदी के बाद एक उम्मीद की किरण बनकर उभरा था, लेकिन सामाजिक, तकनीकी और प्रशासनिक चुनौतियों ने इसे असफलता की ओर धकेल दिया। यह प्रोजेक्ट न केवल पासी समुदाय के लिए रोजगार का साधन बन सकता था, बल्कि बिहार को एक स्वास्थ्यवर्धक पेय का केंद्र भी बना सकता था।










