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    Tuesday, December 3, 2024
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      वायु प्रदूषण एवं खेत की उर्वरता के लिए पुआल से बनेगा बायो-चारकोल

      बिहारशरीफ (नालंदा दर्पण)। हमारे अन्नदाताओं के खेतों में कृषि अपशिष्ट या पुआल जलाने से न सिर्फ पर्यावरण प्रदूषण बढ़ रहा है, बल्कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी प्रभावित हो रही है। जोकि एक ग्लोबल समस्या के रुप में उभरी है। ऐसे में बायोचार इकाई को इन समस्याओं के समाधान के तौर पर देखा जा रहा है।

      दरअसल, बायोचार यूनिट ईंट व मिट्टी के गारे से बनाई गई चिमनीनुमा व गुंबदाकार संरचना है। इसमें पुआल को उच्च तापमान पर आक्सीजन की अनुपस्थिति में पायरालिसिस विधि से जलाकर बायोचारकोल का निर्माण किया जाता है।

      इस प्रक्रिया में बहुत कम धुआं निकलता है। पुआल में मौजूद कार्बन पूरी तरह सुरक्षित रह जाता है। जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने व मिट्टी की संरचना सुधारने में बहुत उपयोगी होता है।

      मृदा विज्ञानी के अनुसार बायो चारकोल में 70 प्रतिशत तक कार्बन सुरक्षित बच जाता है। इसका प्रति एकड़ 20 क्विटल के हिसाब से उपयोग किया जाता है। इस उत्पाद के उपयोग से किसानों को रसायनिक खाद पर निर्भरता घटेगी।

      बायोचार इकाई, कृषि अपशिष्ट को खेतों में जलाने से बढ़ रहे वायु प्रदूषण एवं खेत मे आग जलने से ऊसर हो रही जमीन को बचाने का एक जरिया है। इसके तहत कृषि अपशिष्ट (पुआल/पराली) को आक्सीजन की अनुपस्थिति में जलाकर बायो चारकोल बनाया जाएगा।

      उस चारकोल का व्यवहार खेतों में जैविक उर्वरक के तौर पर किया जाएगा। कार्बन से उक्त यह उत्पाद न सिर्फ फसलों को भरपूर फायदा पहुंचाएगा। मिट्टी की संरचना में सुधार भी करेगा।

      पुआल को चिमनी गुंबदनुमा भट्ठी में आक्सीजन की बहुत ही कम मात्रा में विशेष प्रकार से जलाया जाएगा। इस प्रक्रिया में धुआं नहीं के बराबर निकलने दिया जाएगा। 16 क्विटल पुआल को बायोचारकोल में बदलने में 24 से 36 घण्टे लग जाएंगे और 13 क्विटल बायो चारकोल प्राप्त होगा।

      वायुमंडल में नहीं फैलती जहरीली गैस खुले में पुआल जलने पर वायुमंडल में कार्बन डायआक्साइड व कार्बन मोनोआक्साइड आदि जहरीली गैस का उत्सर्जन होता है जो वायुमंडल में मिलकर उसे जहरीला बना रहा है।

      लेकिन, चूंकि बायो चारकोल निर्माण के दौरान ऑक्सीजन की अनुपस्थिति रहती है इसलिए कार्बन डायक्साइड एवं कार्बन मोनोऑक्साइड का निर्माण नहीं होता। कृषि विज्ञानी ने बताया कि चिमनीनुमा और गुम्बदाकार भट्ठी में पुआल भर कर ऊपर से आग लगा उसे बन्द कर दिया जाता है।

      आग पुआल को धीरे-धीरे जलाकर बायो चारकोल में बदलता हुआ नीचे की तरफ बढ़ता है। 24 से 36 घण्टे में बायोचारकोल तैयार हो जाता है। उसे नीचे के दरबाजे से निकाला जाता है।

      इस प्रक्रिया में पुआल का कार्बन सुरक्षित बच जाता है। जिसका उपयोग खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए किया जाएगा। इसका औद्योगिक इस्तेमाल भी होता है।

      खेतों में पुआल जलाने से न सिर्फ पर्यावरण को गम्भीर नुकसान हो रहा है, बल्कि मिट्टी में बसे केंचुए व अन्य लाभकारी कीट भी मर रहे हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों का भी नुकसान हो रहा है। आग जलने से उपजाऊ मिट्टी की संरचना बिगड़ रही है।

      किसानों को खेतों में पुआल जलाने से बचना चाहिए। अब पुआल प्रबन्धन के कई तकनीक आ गए हैं जो कृषि आमदनी को बढ़ाने वाला है। उसमें बायोचारकोल का निर्माण भी एक है।

      इस परियोजना पर प्रति इकाई करीब 70 हजार रुपए खर्च होता है। यूनिट निर्माण में ईंट की जोड़ाई मिट्टी के गारे से होती है।

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