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चंडी बापू हाईस्कूल खेल मैदान: गौरवशाली अतीत से उपेक्षा की दर्दनाक वर्तमान तक

चंडी (नालंदा दर्पण)। नालंदा जिले के चंडी क्षेत्र की हृदयस्थली में स्थित यह खेल मैदान आज उदास और हताश खड़ा है। डेढ़ सौ वर्ष पुराना यह मैदान कभी बच्चों की किलकारियों, युवाओं की हंसी-ठिठोली और खेल की धमक से गुलजार रहता था। लेकिन अब यह राजनीति की साजिशों, अतिक्रमण और उपेक्षा का शिकार होकर सूना पड़ा है। मोबाइल फोन और आधुनिक मनोरंजन के दौर में यह मैदान चुपचाप अपनी कहानी सुना रहा है।  एक कहानी जो आजादी की जंग से लेकर राजनीतिक रैलियों तक फैली हुई है। नालंदा दर्पण की यह विशेष रिपोर्ट मैदान की उस दर्दभरी दास्तां को सामने लाती है, जो स्थानीय निवासियों के लिए एक चेतावनी भी है।

यह मैदान सिर्फ एक खेल का मैदान नहीं, बल्कि चंडी की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर है। इसका इतिहास 150 वर्ष पुराना है, जब अंग्रेजी हुकूमत के दौरान यह गुलामी की बर्बरता का गवाह बना। आजादी के बाद यह मैदान रौनक से भर उठा। यहां पर 16 अगस्त 1942 को स्वतंत्रता सेनानियों ने चंडी थाना पर तिरंगा फहराया था। इसी मैदान पर अंग्रेजी पुलिस की गोली से क्रांतिकारी बिंदेश्वरी सिंह शहीद हो गए। मैदान के एक हिस्से को काटकर 1905 में चंडी थाना का भवन बनाया गया, जहां अंग्रेज दारोगा के घोड़ों की टापें इसकी छाती को रौंदती थीं। भूरे साहब और अभिजात्य वर्ग यहां हवाखोरी करते थे।

आजादी के बाद मैदान ने नई ऊंचाइयां छुईं। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में इसके पास ही बापू हाईस्कूल की नींव रखी गई और तब से इसे ‘बापू हाईस्कूल मैदान’ के नाम से जाना जाने लगा। कभी यह आसपास के इलाकों का फुटबॉल का बादशाह था। समय के साथ क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ी तो यह क्रिकेट प्रेमियों का प्रिय स्थल बन गया। बिहार के पूर्व शिक्षा मंत्री डॉ. रामराज सिंह के निधन के बाद दो दशकों तक यहां ‘डॉ. रामराज सिंह क्रिकेट टूर्नामेंट’ आयोजित होता रहा। कई रणजी खिलाड़ी यहां अपनी प्रतिभा दिखा चुके हैं। शाम के समय महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग यहां चहलकदमी करते थे, जो इसे एक जीवंत सामाजिक केंद्र बनाता था।

लेकिन 1995 में मैदान की किस्मत पलट गई। कुछ लोगों ने इसके एक हिस्से पर कब्जा करना शुरू कर दिया और एक कोने में मकान बनने लगा। स्थानीय निवासियों और मैदान के चाहने वालों ने इसका विरोध किया। शहर कई दिनों तक बंद रहा, मुकदमे चले, लेकिन अंततः मैदान को अतिक्रमण मुक्त कराया गया। घेराबंदी की गई ताकि भविष्य में कोई फिर से इसकी ओर आंख न उठा सके।

मैदान सिर्फ खेल का गवाह नहीं, बल्कि राजनीति का भी मूक साक्षी रहा है। यहां हर पांच साल में नेताओं की धमाचौकड़ी और चुनावी नूराकुश्ती देखी गई। चंडी के पहले विधायक धनराज शर्मा की जीत से लेकर देवगण प्रसाद, डॉ. रामराज सिंह, उनके पुत्र अनिल सिंह और हरिनारायण सिंह के बीच की राजनीतिक लड़ाइयां सब कुछ इसी मैदान पर हुआ।

1962 में यहां पहली बार जनता ने हेलीकॉप्टर का दर्शन किया। आपातकाल से लेकर 1977 की चुनावी लहर तक मैदान ने सब देखा। पूर्व मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा की दहाड़, उप प्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल की किसानों से बातचीत, दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की कवितामय भाषण, लालकृष्ण आडवाणी की सौम्यता, लालू प्रसाद यादव की वाकपटुता, कर्पूरी ठाकुर और जगन्नाथ मिश्रा की रैलियां सभी ने इस मैदान की छाती पर दहाड़ लगाई। वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के उतार-चढ़ाव भी इसी मैदान के आंगन में साकार हुए। यहां तक कि फिल्मी सितारे जैसे फिरोज खान और आदित्य पंचोली ने भी इसकी शोभा बढ़ाई।

आज मैदान की हालत दयनीय है। कभी जो मैदान बच्चों की गेंदों और खिलाड़ियों की दौड़ से रोमांचित होता था, अब वह गंदगी, कूड़े और असामाजिक तत्वों का अड्डा बन चुका है। आयोजनों के नाम पर यहां स्कूल कार्यक्रम, झूले या अन्य इवेंट होते हैं, लेकिन उसके बाद गड्ढे, गंदगी और कूड़ा छोड़ दिया जाता है। सूअर यहां भांगड़ा करते हैं और यह तबेला जैसा लगता है। चंडी थाना का नाजायज कब्जा है, जहां जब्त वाहन रखे जाते हैं। छात्र जब दौड़ने आते हैं तो गंदगी और गड्ढों से परेशान होते हैं। आयोजक गंदगी फैलाना अपना हक समझते हैं, लेकिन साफ-सफाई को शान के खिलाफ। हम उन छात्रों से सिपाही या दारोगा बनने की उम्मीद करते हैं, जिन्हें एक साफ मैदान भी नहीं दे पाते।

युवा पीढ़ी अब मैदान के इतिहास से बेखबर है। ब्रांडेड मोबाइल, पिज्जा-बर्गर और टिकटॉक के दौर में पांच रुपये की मूंगफली लेकर दोस्तों के साथ मैदान में मजा लेने की अनुभूति उन्हें कहां पता। कभी यह मैदान मनोरंजन का समाजवाद था- सबका रास्ता दोस्तों का अड्डा। लोग कहते थे, ‘आना तो चंडी फील्ड में, कल मैच है’। लेकिन अब यह धड़कन खो चुकी है। 150 सालों की यादें, पीढ़ियों की मोहब्बत और खेल के संस्कार  सब बिसरा दिए गए।

स्थानीय निवासियों का कहना है कि मैदान को आधुनिक बनाने के प्रयास हुए, लाखों रुपये स्टेडियम पर खर्च किए गए, लेकिन वह आधा-अधूरा खंडहर बनकर रह गया। अब यहां असामाजिक तत्वों का जमावड़ा है, गंदगी और पेशाबखाना। अच्छे लोग यहां आने से कतराते हैं। मैदान की यह दुर्दशा न केवल खेल की हानि है, बल्कि चंडी की सांस्कृतिक विरासत की भी। क्या स्थानीय प्रशासन और समाज इसे फिर से जीवंत कर पाएगा? या यह हमेशा के लिए अतीत हो जाएगा? नालंदा दर्पण पाठकों से अपील करता है कि इस धरोहर को बचाने के लिए आवाज उठाएं।

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