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ताड़ी को निगल गई सरकारी नियमावली, नीरा केंद्र बनी शोभा की वस्तु

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नालंदा दर्पण डेस्क। ताड़ी का इतिहास आदिकाल से जुड़ा हुआ है। जितना प्राचीन आदमी का जन्म लेना है, कहीं उससे पहले जन्म पेड़-पौधौ का पता चलता है। साक्ष्य रामायणकालीन आठ ताल वृक्ष का भगवान राम द्वारा लक्ष्य दृष्यंत उपलब्ध है।

आर्युवेद ग्रंथों में तरकुलारिष्ट का जिक्र आता है। उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में ताल वृक्ष, अंग्रेजों का पाम ट्री बहुतायत से मिलता है।

समुद्र तटीय प्रदेशों में नारियल वृक्ष मिलते है।इन वृक्षों से ताड़ी-नीरा निकालने की प्रथा प्राचीन काल से आ रही है। इससे रस निकालना जोखिम भरा कार्य रहा है।

ग्रामीण इलाकों में ताड़ी  का मौसम अपने चरम पर है। ताड़ी की दुकानें खेत-खलिहान,सड़क किनारे सज चुकी है।पीने-पिलाने का दौर चल रहा है। वो भी पहले की तरह खुलेआम नहीं, बल्कि चोरी छिपे।

इसका कारण है कि बिहार में शराबबंदी के बाद पुलिस की नजर ताड़ी व्यवसाय से जुड़े लोगों पर ही है।

18 मार्च, 2017 को बिहार में नीरा नियमावली लागू की गई। प्रदेश में ताड़ी पर रोक लगाने का मामला तुगलकी फरमान साबित हो कर रह गया है।

इस व्यवसाय पर निर्भर लोग बेरोजगार हो रहें हैं तो दूसरी तरफ शहरीकरण की वजह से ताड़ के पेड़ बुलडोजर की भेंट चढ़ते चला जा रहा है।

फिलहाल ग्रामीण इलाकों में अब भी ताड़ी व्यवसाय से जुड़े परिवार के लिए जीविकोपार्जन का यही एकमात्र विकल्प है। वैशाख महीने में ताड़ी का मौसम परवान पर होता है। वैसे चैत्र रामनवमी के बाद ताड़ी उतरना शुरू हो जाता है।

ताड़ी के शौक़ीनों के अनुसार मौसम में सुबह एक गिलास ताज़ी ताड़ी पीने से शरीर स्वस्थ हो जाता है। साल भर शराब पीने वाले कुछ शौक़ीन ताड़ी के मौसम में शराब छोड़ ताड़ी पीने लगते हैं और उनका मानना रहता है कि शरीर पर हुए शराब के नुकसान की भरपाई ताज़ी ताड़ी पीने से हो जाती है।

उनके अनुसार ताज़ी उतरी ताड़ी जिसे ‘नीरा’ कहा जाता है उसे पीने से लीवर और शरीर के भीतरी अंग निर्मल हो जाते हैं,लीवर साफ़ हो जाता है। ये बात भले वैज्ञानिक नज़रिए से सही ना हो लेकिन रवायत में ताड़ी के शौक़ीनों में चलन में है।

जैसे- जैसे गर्मी बढ़ती जाती है वैसे वैसे ताड़ और ज़्यादा मात्रा में ताड़ी फेंकता है। तब कई बार पेड़ से इतनी ताड़ी निकलती है कि पेड़ पर टंगी लभनी मतलब मिट्टी की लबनी चूना मतलब ओवरफ़्लो होकर टपकना शुरू कर देती है। ताड़ के पेड़ को देशज भाषा में’ तरकुल’ भी कहा जाता है।

सुबह की ताज़ी ताड़ी नीरा शीतलता की वजह से बतौर पेट की दवा बहुत पसंद की जाती है,भूख बढ़ाने वाली मानी जाती है तो शाम की ताड़ी दिन भर धूप खाने से हल्की नशे की सिफ़त वाली हो जाती है और हल्के नशे के तौर पर इसे लेने वाले शाम की ताड़ी बहुत पसंद करते हैं।

ताड़ी के शौक़ीन कहते हैं कि ताड़ी वही शुद्ध है जिसमें हड्डे मतलब बर्रे और शहद की मक्खी समेत कुछ कीट आकर्षित हो पेड़ पर टंगी लबनी में कूद जाएं,शौक़ीन इस ताड़ी को छन्नी से छानकर पी जाते हैं और कहते हैं कि अगर कीट आकर्षित नहीं हो रहे तो ताड़ी मिलावटी है या दवा पड़ी ताड़ी है।

ऐसी मान्यता है कि चैत्र की रामनवमी के बाद ताड़ी उतारने वालों मतलब गछवाहों की पत्नियाँ अपने सुहाग की सभी निशानियाँ हटा देती हैं। मसलन चूड़ी-बिंदी-सिंदूर वग़ैरह, ये पति की लंबी उम्र के लिए एक किस्म का टोटका है, जो सदियों से चला आ रहा है।

नाग पंचमी के दिन गछवाहों की सुहागन फिर से सुहाग की निशानियाँ धारण करती हैं। साथ ही तरकुलवा देवी की पूजा करती हैं। बकरे की बलि चढ़ती है।

ज़िला गोरखपुर में एक तरकुलहा देवी हैं, वहाँ भी लोग देवी को बकरे की बलि चढ़ाने जाते हैं। फिर वहीं मिट्टी की मेटी में बकरा पकता है और मिट्टी की परई मतलब शकोरों में खाया जाता है।

ताड़ी और नीरा के बीच लटकी ताड़ीबंदी: बिहार में शराबबंदी के साथ ताड़ी बंदी पर भी तुगलकी फरमान जारी हुआ था। अप्रैल,2006 में प्रदेश में ताड़ी बंदी का ऐलान किया गया था। सरकार का तर्क था कि यह भी शराब की तरह नशे की लत लगाती है।

सरकार ने दावा किया था कि नशीली ताड़ी पर रोक लगेगी और उस की जगह नीरा को बढ़ावा दिया जाएगा। 18, मार्च,2017 को सरकार ने ‘नीरा नियमावली’ लागू की।

नीरा को बेचने के लिए कई केंद भी बनाए गए और लाइसेंस भी बांटे गए। लेकिन नीरा का व्यवसाय धरातल पर नहीं दिखा। नियमावली बनने के इतने साल गुजरने के बाद भी हालत यह है कि ताड़ और खजूर से पैदा होने वाले कुल रस का एक फीसदी हिस्सा भी इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है।

शाही मौसम यानी अप्रैल से अगस्त महीने के बीच ताड़ या खजूर के एक पेड़ से रोजाना 10 लिटर रस मिलता है। इस से साफ हो जाता है कि ताड़ और खजूर का 99 फीसदी रस या तो ताड़ी के रूप में बाजार में बिक रहा है या बरबाद हो रहा है।

जब सरकार ने नीरा नियमावली लागू की थी तो इसे एक नीरा क्रांति के रूप में देखा जा रहा था।सबसे ज्यादा नालंदा में तब 55 स्टाल लगाए गए थें। नालंदा में नीरा की बाटलिंग भी शुरू हुई थी। वैशाली में भी एक प्लांट लगाया गया था। गया और भागलपुर में भी प्लांट की योजना थी।

इसी माह नालंदा के नगरनौसा प्रखंड के पांच स्थानों पर नीरा केंद्र की शुरुआत की गई है।जबकि चंडी प्रखंड में कुछ साल पहले ही दो नीरा केंद्र खुले थे। जो कुछ ही दिन बाद ठप्प हो गया।

वित्तीय वर्ष 2022-23 में 46 लाख लीटर नीरा उत्पादन का लक्ष्य: बिहार सरकार एक बार फिर से ताड़ या खजूर के पेड़ से  ताड़ी उत्पादन और बिक्री में पारंपरिक रूप से जुड़े परिवारों को नीरा उत्पादन और जीविकोपार्जन योजना से जोड़ने का लक्ष्य रखा है।

वित्तीय वर्ष 2022-23 में 46 लाख लीटर से ज्यादा नीरा उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। 1672 केंद्र से नीरा बिक्री की योजना बनाई गई है।

नीरा के उत्पादन और बिक्री की जिम्मेदारी जीविका के स्वयं सहायता समूह को दी गई है। जीविका के माध्यम से स्वयं सहायता समूह के तहत लोगों को रोजगार देने की योजना है।

मद्य और निषेध विभाग ने नीरा संग्रहण, उत्पादन और मार्केटिंग को लेकर कार्ययोजना तैयार की है। राज्य के सभी 38 जिलों में 12893 नीरा उत्पादकों प्रशिक्षण देने भी तैयारी है। 460 नीरा समूह के गठन का लक्ष्य है, जिसके तहत अभी तक 272 समूह का गठन कर लिया गया है।

उल्लेखनीय है कि राज्य में अप्रैल 2016 से लागू शराबबंदी के बाद से ही ताड़ के पेड़ों से नीरा उत्पादन सरकार की ओर से किया गया था। वर्ष 2017-18 में राज्य के कई जिलों में इसकी बिक्री की गई थी। इसके लिए राज्य में तीन स्थानों पर नीरा चिलिंग प्लांट भी लगाए गए थे।

ताड़ और खजूर के पेड़ से ताड़ी उतारने व बिक्री करने वाले लोगों को नीरा योजना के तहत प्रशिक्षित किया जा रहा है। साथ ही उन्हें राज्य सरकार 1 लाख रुपए आर्थिक मदद भी दे रही है।

उल्लेखनीय है कि शराबबंदी के बाद ताड़ी पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद नीरा पर जोर दिया गया था। हालांकि इस दौरान इस योजना में आशातीत सफलता नहीं मिली थी। लेकिन सरकार अब इस योजना को तेज करने में जुट गई है। देखना है कि यह इस बार भी धरातल पर उतरती है या नहीं।

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