
बिहारशरीफ (नालंदा दर्पण / मुकेश भारतीय)। नालंदा विश्वविद्यालय कभी विश्व के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में से एक था। लेकिन अब खंडहरों में तब्दील हो चुका हैं। 14वीं सदी की शुरुआत में इस महान विहार ने अपनी शैक्षणिक गतिविधियां बंद कर दी थीं। लेकिन इसकी विरासत आज भी विश्व भर में ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।

ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक द्वारा स्थापित यह विहार एक आवासीय शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित हुआ। जिसने आधुनिक विश्वविद्यालयों की संरचना को प्रेरित किया, जैसे कि ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालय।
नालंदा महाविहार ने विज्ञान, गणित, खगोलशास्त्र, दर्शनशास्त्र, चिकित्सा और कला जैसे क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसकी शिक्षण पद्धति ने मध्ययुगीन वैज्ञानिक पद्धति को आकार दिया। जिसका प्रभाव मध्य एशिया, अरब और यूरोप तक फैला।
नालंदा के विद्वान आर्यभट्ट ने छठी शताब्दी में आर्यभटीय की रचना की। जिसमें शून्य को एक अंक के रूप में मान्यता दी गई। यह क्रांतिकारी अवधारणा बीजगणित और कैलकुलस के विकास का आधार बनी। बाद में ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मस्फुटसिद्धांत लिखा। जिसका अरबी में अनुवाद सिंदहिंद के रूप में हुआ और यूरोप में भारतीय गणित और खगोलशास्त्र का परिचय कराया।
चीन में नालंदा का प्रभाव विशेष रूप से उल्लेखनीय था। गौतम सिद्धार्थ ने 665 से 698 ईस्वी तक चीनी खगोलशास्त्र ब्यूरो का नेतृत्व किया और उनके कार्य ने चीनी कैलेंडर और ज्योतिषीय व्याख्याओं को समृद्ध किया।
तांत्रिक बौद्ध भिक्षु यी शिंग (672-717 ईस्वी) ने भी नालंदा में विकसित गणित और खगोलशास्त्र की विशेषज्ञता हासिल की। जिसने चीनी विज्ञान को गहराई से प्रभावित किया।
नालंदा ने योगाचार और माध्यमिक दर्शन को मिलाकर योगाचार-माध्यमिक दर्शन विकसित किया। जिसे संतरक्षिता जैसे विद्वानों ने समृद्ध किया। तांत्रिक बुद्धिज़्म, जो नालंदा में सातवीं और आठवीं सदी में विकसित हुआ, उसने चीन और अन्य एशियाई देशों में गहरा प्रभाव डाला। वज्रयान दर्शन के तहत त्रि-आयामी मंडल की अवधारणा ने बिहार के केसरिया स्तूप और जावा के बोरोबुदुर जैसे स्मारकों के निर्माण को प्रेरित किया।
नालंदा कला का एक प्रमुख केंद्र था। यहां मथुरा और सारनाथ की शैलियों का मिश्रण देखने को मिलता था। आठवीं सदी में यह नालंदा स्कूल ऑफ़ आर्ट के रूप में विकसित हुआ। जिसने पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशिया की कला को प्रभावित किया।
संस्कृत में रचित दार्शनिक ग्रंथों, तांत्रिक साधनाओं और काव्य ने नालंदा की साहित्यिक परंपरा को समृद्ध किया। तिब्बती विद्वान थोन्मी सम्भोटा ने नालंदा में पढ़ाई कर तिब्बती लिपि विकसित की, जो देवनागरी और कश्मीरी लिपियों पर आधारित थी।
नालंदा में पांडुलिपि लेखन और अनुवाद की परंपरा ने तिब्बत, चीन और अन्य देशों की भाषा और संस्कृति को समृद्ध किया। प्रज्ञापारमिता सूत्र का हिस्सा द डायमंड सूत्रा को नालंदा में नागार्जुन द्वारा लिखा गया माना जाता हैं। यह विश्व की पहली प्रकाशित पुस्तक थी।
नालंदा ने चिकित्सा विज्ञान, विशेष रूप से नेत्र विज्ञान और रसायन शास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। नागार्जुन की रसरत्नाकर भारतीय रसायन विद्या का पहला ग्रंथ था। जिसने तांग चीन सहित पूर्वी एशिया की चिकित्सा परंपराओं को प्रभावित किया। हठ योग भी नालंदा में विकसित हुआ। जिसने योग को विश्व स्तर पर लोकप्रिय बनाया।
नालंदा का प्रभाव केवल प्राचीन काल तक सीमित नहीं रहा। 2016 में इसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा मिला। आधुनिक समय में नालंदा के नाम पर कई संस्थान स्थापित हुए हैं। जैसे कि भारत में नालंदा यूनिवर्सिटी (2010), सिक्किम में कर्म श्री नालंदा संस्थान (1981) और फ्रांस, ब्राजील, कनाडा और मलेशिया में नालंदा से प्रेरित बौद्ध केंद्र।
नालंदा की शैक्षिक परंपरा ने बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म के बीच समानताओं को भी उजागर किया। खासकर बोधिसत्व की अवधारणा में। इतिहासकारों का मानना हैं कि नालंदा ने ईसाई धर्म के शुरुआती विकास को प्रभावित किया है।

वेशक नालंदा महाविहार केवल एक शिक्षण संस्थान नहीं था। बल्कि यह ज्ञान, संस्कृति और करुणा का प्रतीक था। इसकी विरासत आज भी विश्व भर में शिक्षा, कला और विज्ञान के क्षेत्र में प्रेरणा दे रही हैं। यह हमें सिखाती हैं कि ज्ञान और बुद्धि के माध्यम से मानवता नफरत और लालच से मुक्त होकर शांति की ओर अग्रसर हो सकती हैं।









