श्रद्धा या क्रूरता? मनसा मंदिर में 3500 पाठा और 750 कबूतरों की बलि!

परवलपुर (नालंदा दर्पण)। परवलपुर प्रखंड अंतर्गत पिलीच गांव में स्थित ऐतिहासिक और प्रसिद्ध मनसा मंदिर में प्रत्येक वर्ष अगहन पंचमी के पावन अवसर पर आयोजित होने वाला दो दिवसीय मनसा मेला इस बार श्रद्धा, उत्साह और परंपराओं के अनोखे संगम के साथ संपन्न हो गया।

इस मेले की सबसे बड़ी विशेषता रही बलि प्रथा, जिसमें लगभग 3500 पाठा (बकरी के बच्चे) और 750 कबूतरों की बलि देवी मनसा को चढ़ाई गई। यह प्रथा सदियों से चली आ रही है और स्थानीय लोक मान्यताओं के अनुसार मनसा देवी की कृपा प्राप्त करने का प्रमुख माध्यम मानी जाती है।

मेले में दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं की भारी भीड़ ने मंदिर परिसर को जीवंत बना दिया, लेकिन इस कुप्रथा ने पशु-पछी प्रेमियों और सामाजिक संगठनों के बीच बहस को फिर से गरमा दिया है।

मेला अगहन पंचमी से शुरू होकर दो दिनों तक चला। सुबह के प्रथम किरण से ही श्रद्धालुओं का तांता लगना शुरू हो गया था, जो देर शाम तक जारी रहा। मंदिर के मुख्य द्वार से लेकर बलि स्थल तक लंबी कतारें लगीं।

परंपरा के अनुसार बलि देने से पहले रसीद काटी जाती है और क्रमवार तरीके से भक्त अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इस वर्ष बलि की संख्या पिछले वर्षों की तुलना में थोड़ी अधिक रही, जो मेले की बढ़ती लोकप्रियता का संकेत देती है।

रात के समय मेले का नजारा और भी रोचक हो जाता है। मध्यरात्रि में सैकड़ों कन्याओं को भोज कराने की रिवाज निभाई गई। यह आयोजन देवी मनसा की पूजा का अभिन्न अंग माना जाता है। कन्या भोज के बाद बलि प्रक्रिया तेज हो गई।

Devotion or cruelty? 3500 goats and 750 pigeons sacrificed at the Mansa Temple!

मंदिर परिसर में घंटियों की गूंज, मंत्रोच्चार और भक्तों के जयकारों से वातावरण भक्तिमय हो उठा। स्थानीय पुजारी ने बताया कि मनसा देवी सर्पों की देवी हैं और बलि चढ़ाने से भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यह प्रथा हमारे पूर्वजों से चली आ रही है और इसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता।

इस मेले में हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं के पहुंचने के कारण प्रशासन ने सुरक्षा के विशेष प्रबंध किए थे। परवलपुर थाना प्रभारी सहित दर्जनों पुलिसकर्मी तैनात रहे। सीसीटीवी कैमरे लगाए गए और मेला परिसर को बैरिकेडिंग से घेरा गया। इसके बावजूद भीड़ के दबाव में कुछ महिलाओं के जेवरात गिरने की शिकायतें आईं।

एक श्रद्धालु महिला ने बताया कि भीड़ इतनी थी कि चलना मुश्किल हो रहा था, लेकिन देवी की कृपा से सब ठीक रहा। प्रशासन की ओर से खोया-पाया केंद्र भी स्थापित किया गया था, जहां गिरे सामान को जमा किया जा रहा था।

स्थानीय ग्रामीणों और आयोजकों के अनुसार मनसा मेले की ख्याति अब नालंदा जिले की सीमाओं को पार कर चुकी है। पहले जहां सिर्फ परवलपुर और आसपास के प्रखंडों से लोग आते थे, अब बिहार के अन्य जिलों जैसे पटना, गया, जहानाबाद के अलावा उत्तर प्रदेश, झारखंड और यहां तक कि पश्चिम बंगाल से भी श्रद्धालु पहुंच रहे हैं।

एक स्थानीय व्यापारी ने कहा कि यह मेला हमारी संस्कृति का प्रतीक है। बलि प्रथा से देवी प्रसन्न होती हैं और गांव में सुख-समृद्धि आती है। पिछले कुछ वर्षों में मेले का कारोबार भी दोगुना हो गया है। मेले में दुकानों की कतारें लगीं। बच्चों के लिए झूले और मनोरंजन के साधन भी उपलब्ध थे, जिससे मेला एक पारिवारिक उत्सव का रूप ले लेता है।

हालांकि मेला श्रद्धा का प्रतीक है, लेकिन बलि प्रथा ने इसे विवादास्पद बना दिया है। पशु अधिकार संगठनों ने इसकी कड़ी निंदा की है। एक स्थानीय एनजीओ कार्यकर्ता ने कहा कि  3500 मासूम पाठा और 750 कबूतरों की बलि किसी भी धर्म या परंपरा के नाम पर उचित नहीं ठहराई जा सकती। यह क्रूरता है और कानूनन भी प्रतिबंधित होनी चाहिए। भारत में पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के तहत बलि पर रोक लगाने की मांग लंबे समय से चली आ रही है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रथा अभी भी जीवित है।

विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी प्रथाएं सामाजिक जागरूकता की कमी का परिणाम हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बलि मनोकामनाओं की पूर्ति का प्रतीक बन जाती है, लेकिन आधुनिक समाज में वैकल्पिक पूजा विधियां जैसे फल-फूल चढ़ाना अपनाया जा सकता है। नालंदा जिला प्रशासन ने हालांकि मेले को सुचारू रूप से चलाने पर फोकस किया, लेकिन भविष्य में बलि पर रोक लगाने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

बहरहाल मनसा मेला न केवल धार्मिक आयोजन है, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था और संस्कृति को मजबूत करने वाला प्लेटफॉर्म भी है। इस वर्ष का मेला सफलतापूर्वक संपन्न हुआ, लेकिन बलि प्रथा जैसे मुद्दे समाज को सोचने पर मजबूर कर रहे हैं। क्या सदियों पुरानी परंपराएं आधुनिक मूल्यों के साथ तालमेल बिठा पाएंगी? यह सवाल आने वाले वर्षों में और प्रासंगिक होता जाएगा।

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