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मुंशी प्रेमचंद और महात्मा गांधी: हिंद स्वराज्य की साहित्यिक और वैचारिक संगति

नालंदा दर्पण डेस्क। आगामी 31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन और महात्मा गांधी के हिंद स्वराज्य स्मरण दिवस एक साथ मनाना न केवल इन दोनों महान व्यक्तित्वों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है, बल्कि यह भारत के ग्रामीण समाज और उसकी सांस्कृतिक जड़ों के प्रति उनकी साझा प्रतिबद्धता को भी रेखांकित करता है।

प्रेमचंद का साहित्य और गांधी का हिंद स्वराज्य दोनों ही भारत के सात लाख गांवों की आत्मा को उजागर करते हैं, जहां ग्राम्य जीवन की सादगी, संवेदनाएं और चुनौतियां केंद्रीय थीं। यह आलेख प्रेमचंद के साहित्य और गांधी के हिंद स्वराज्य के विचारों की तुलना करते हुए यह विश्लेषण करता है कि कैसे दोनों ने भारतीय समाज के यथार्थ को समझने और उसे बदलने की दिशा में योगदान दिया।

मुंशी प्रेमचंद को केवल एक उपन्यासकार या कहानीकार कहना उनकी साहित्यिक महारथ को सीमित करना होगा। उनकी रचनाएं, जैसे- गोदान, रंगभूमि, सेवासदन, प्रेमाश्रम और कर्मभूमि, भारतीय ग्रामीण जीवन का जीवंत चित्रण प्रस्तुत करती हैं।

प्रेमचंद ने ग्राम्य परिवेश की कठिनाइयों, सामाजिक विषमताओं और मानवीय संवेदनाओं को अपनी पारदर्शी और यथार्थवादी लेखनी के माध्यम से इस तरह उभारा कि पाठक स्वयं को कथानक का हिस्सा महसूस करता है। उनकी रचनाएं किसी वाद से बंधी नहीं हैं, बल्कि मानवीय अध्यात्म और यथार्थवाद का एक कालजयी दर्शन प्रस्तुत करती हैं।

प्रेमचंद की लेखन शैली की विशेषता उनकी भाषा का लालित्य और वैविध्य है। वे उर्दू, हिंदी, फारसी, अरबी, संस्कृत और स्थानीय बोलियों जैसे भोजपुरी और ब्रजभाषा के साथ-साथ देशज शब्दों और लोकोक्तियों का उपयोग करते थे।

उनकी रचनाओं में पात्र जीवंत प्रतीत होते हैं, जैसे कोई नाटक मंच पर साकार हो रहा हो। गोदान में होरी का चरित्र और उसका ग्रामीण जीवन सामाजिक शोषण और आर्थिक विषमता का प्रतीक बन जाता है, जो पाठक को गहरे चिंतन के लिए प्रेरित करता है। प्रेमचंद का लेखन न केवल साहित्यिक है, बल्कि यह सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की मांग भी करता है, जो उन्हें एक साहित्यकार के साथ-साथ राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में स्थापित करता है।

महात्मा गांधी का हिंद स्वराज्य (1909) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक वैचारिक दस्तावेज है, जो भारत के विकास को ग्राम्य समाज के उत्थान में देखता है। गांधीजी ने रामराज्य की कल्पना को ग्राम स्वराज्य के रूप में प्रस्तुत किया, जहां आत्मनिर्भर गांव भारतीय संस्कृति और अर्थव्यवस्था का आधार हों।

उनके विचार में पश्चिमी भौतिकवादी सभ्यता के बजाय भारतीय ग्रामीण जीवन की सादगी और नैतिकता ही देश की प्रगति का मार्ग है। गांधीजी का यह दर्शन प्रेमचंद के साहित्य में गहरे तक प्रतिबिंबित होता है, विशेष रूप से गोदान और रंगभूमि जैसे उपन्यासों में जहां ग्रामीण समाज की समस्याओं और शोषण को उजागर किया गया है।

गांधीजी का हिंद स्वराज्य केवल एक राजनीतिक दस्तावेज नहीं था, बल्कि यह सामाजिक और नैतिक सुधार का आह्वान भी था। उन्होंने सामाजिक न्याय, आत्मनिर्भरता और अहिंसा को भारतीय समाज के पुनर्जनन का आधार माना।

प्रेमचंद की रचनाएं इस दर्शन को साहित्यिक रूप में प्रस्तुत करती हैं, जहां वे जमींदारों, साहूकारों और पटवारियों द्वारा ग्रामीण समाज के शोषण को उजागर करते हैं। दोनों ही व्यक्तित्वों ने ग्राम्य समाज को भारत की आत्मा माना और उसे सशक्त बनाने की दिशा में कार्य किया।

प्रेमचंद और गांधी के विचारों में कई समानताएं हैं, जो उनके कार्यों को एक-दूसरे का पूरक बनाती हैं। निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से उनकी तुलना की जा सकती है-

ग्राम्य समाज पर केंद्रित दृष्टिकोण: गांधीजी ने हिंद स्वराज्य में ग्राम्य समाज को भारत की रीढ़ माना, और प्रेमचंद ने अपने साहित्य में उसी समाज की समस्याओं, संवेदनाओं और आकांक्षाओं को चित्रित किया। गोदान में होरी का संघर्ष और उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति गांधी के ग्राम स्वराज्य की चुनौतियों का साहित्यिक चित्रण है।

सामाजिक न्याय की अवधारणा: गांधीजी ने सामाजिक न्याय को अहिंसा और समानता के सिद्धांतों पर आधारित किया, जबकि प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में सामाजिक विषमता, शोषण और अन्याय को उजागर कर पाठकों को इसके प्रति जागरूक किया। उनकी कहानियां और उपन्यास, जैसे- निर्मला  और सेवासदन, समाज में व्याप्त लैंगिक और आर्थिक असमानताओं को सामने लाते हैं।

राष्ट्रवाद और मानवतावाद: प्रेमचंद का साहित्य राष्ट्रवादी भावनाओं से ओतप्रोत था, जो गांधी के स्वतंत्रता संग्राम के विचारों से मेल खाता है। उनकी रचनाएं मानवतावादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती हैं, जो गांधी के अहिंसक और नैतिक दर्शन के अनुरूप है। प्रेमचंद का लेखन सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय चेतना का मिश्रण है, जो गांधी के विचारों को साहित्यिक रूप में जीवंत करता है।

भाषा और संस्कृति का उपयोग: प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में उर्दू, हिंदी, और स्थानीय बोलियों का उपयोग कर भारतीय संस्कृति की विविधता को उजागर किया। इसी तरह, गांधीजी ने भी अपनी लेखनी और संदेशों में सरल और जनसुलभ भाषा का उपयोग किया, ताकि आम जनता तक उनकी बात पहुंचे। दोनों ने ही भारतीय जनमानस की भाषा और संस्कृति को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया।

आज के समय में जब भारत में पूंजीवादी विकास और सामाजिक न्याय के बीच ध्रुवीकरण की चर्चा हो रही है, प्रेमचंद और गांधी के विचार और भी प्रासंगिक हो जाते हैं। गोदान में होरी और शहरी जमींदारों के बीच का द्वंद्व आज के ग्रामीण-शहरी विभाजन और सामाजिक-आर्थिक असमानता का प्रतीक है। गांधी का हिंद स्वराज्य आज भी हमें यह सिखाता है कि सच्चा विकास वही है, जो ग्रामीण भारत को सशक्त बनाए और सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करे।

दुर्भाग्यवश, गांधी के नाम पर सत्ता में आए कई नेताओं ने उनके ग्राम स्वराज्य के विचार को दरकिनार कर शहरीकरण और भौतिक विकास को प्राथमिकता दी। प्रेमचंद की रचनाएं इस विडंबना को दर्पण की तरह दर्शाती हैं, जहां ग्रामीण समाज की उपेक्षा और शोषण को बार-बार उजागर किया गया है।

आज जब विश्व पूंजीवादी उदारवाद और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन खोज रहा है, प्रेमचंद और गांधी के विचार हमें एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं, जहां मानवीय मूल्य और ग्राम्य समाज का उत्थान प्राथमिकता है।

मुंशी प्रेमचंद और महात्मा गांधी दोनों ही भारतीय समाज के यथार्थ को समझने और उसे बदलने के लिए समर्पित थे। प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से ग्रामीण भारत की आत्मा को शब्दों में पिरोया, तो गांधी ने हिंद स्वराज्य के माध्यम से उस आत्मा को एक वैचारिक दिशा दी। दोनों की रचनाएं और विचार एक-दूसरे के पूरक हैं, जो हमें यह सिखाते हैं कि भारत का सच्चा विकास तभी संभव है, जब हम अपने गांवों की समस्याओं को समझें और उनके समाधान के लिए कार्य करें।

आगामी 31 जुलाई को इन दोनों महान व्यक्तित्वों को याद करना न केवल उनकी स्मृति को सम्मान देना है, बल्कि उनके विचारों को आज के संदर्भ में जीवित रखने का संकल्प भी है।

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