
बिहारशरीफ (नालंदा दर्पण)। शराबबंदी के बाद बिहार सरकार (Bihar Government) द्वारा वैकल्पिक पेय के रूप में बड़े जोर-शोर से शुरू की गई नीरा परियोजना अब पूरी तरह ठप हो चुकी है। नालंदा जिले में 71.74 लाख रुपये की लागत से स्थापित सूबे का पहला नीरा प्रोसेसिंग प्लांट आज केवल एक बदहाल बंद गोदाम बनकर रह गया है। यह परियोजना कभी स्वास्थ्यवर्धक पेय और रोजगार सृजन का प्रतीक मानी गई थी। लेकिन अब नीति, नियोजन और निष्पादन की त्रुटियों का शिकार होकर इतिहास के पन्नों में सिमटती नजर आ रही है।
बता दें कि मार्च 2017 में बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू होने के बाद नीरा को एक स्वास्थ्यवर्धक और रोजगार सृजक पेय के रूप में प्रचारित किया गया। 27 अप्रैल 2017 को बिहारशरीफ बाजार समिति परिसर में नीरा प्रोसेसिंग प्लांट का उद्घाटन हुआ।
इस प्लांट में गुजरात की आइडीएमसी कंपनी की अत्याधुनिक मशीनें लगाई गईं। जिनकी क्षमता प्रति घंटे 2000 बोतल नीरा पैक करने की थी।
पहले साल पासी समुदाय के 8000 ताड़ी उत्पादकों को नीरा उत्पादन के लिए लाइसेंस दिए गए और यह उत्साह पूरे राज्य में फैल गया। सरकार ने दावा किया कि नीरा इतना स्वास्थ्यवर्धक है कि डॉक्टर इसे प्रिस्क्रिप्शन में लिखेंगे।
हालांकि यह उत्साह ज्यादा दिन नहीं टिक सका। 2018 में लाइसेंस धारकों की संख्या घटकर 5336 रह गई और 2019 में एक भी नया पंजीकरण नहीं हुआ। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 17 मई से 28 जून 2019 के बीच मात्र 11000 लीटर नीरा का उत्पादन हुआ। जोकि इस स्तर की परियोजना के लिए नगण्य है। आज प्लांट की मशीनें धूल फांक रही हैं और यह केंद्र एक सुनसान गोदाम में तब्दील हो चुका है।
नीरा परियोजना की सबसे बड़ी बुनियादी चूक थी इसकी सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाओं को नजरअंदाज करना। नीरा संग्रह की जिम्मेदारी जीविका से जुड़ी महिलाओं को दी गई थी। लेकिन सामाजिक मान्यताओं और सांस्कृतिक रूढ़ियों के कारण महिलाएं ताड़ के पेड़ों पर चढ़ने में असमर्थ रहीं। यह योजना की मूल संरचना में एक गंभीर खामी साबित हुई।
नालंदा जिले के 11 ब्लॉकों में गठित 54 नीरा उत्पादक समूहों में 2268 पासी परिवार शामिल थे, जिनमें से 878 लोगों को नीरा संग्रहण और प्रोसेसिंग का प्रशिक्षण भी दिया गया था। लेकिन प्रशिक्षण और समूह गठन के बावजूद परियोजना अपने लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकी।
नीरा के साथ-साथ सरकार ने इससे गुड़, पेड़ा, आइसक्रीम, लड्डू, बर्फी, जैम और ताल मिश्री जैसे उत्पाद बनाने की योजना बनाई थी। इन उत्पादों का 40फीसदी उत्पादन लक्ष्य तय किया गया था। लेकिन ये योजनाएं कभी फाइलों से बाहर नहीं निकल सकीं। नीरा आधारित उद्योग, जो रोजगार और आर्थिक समृद्धि का वादा लेकर आए थे, वे कागजों में ही सिमटकर रह गए।
आज बिहारशरीफ का नीरा प्रोसेसिंग प्लांट एक उदासीन तस्वीर पेश करता है। लाखों रुपये की लागत से स्थापित मशीनें बेकार पड़ी हैं और प्लांट का परिसर खाली पड़ा है। यह न केवल नालंदा जिले की विफलता है, बल्कि राज्यस्तरीय योजनाओं के क्रियान्वयन में गंभीर खामियों का प्रतीक भी है।

नीरा परियोजना का पतन कई सवाल खड़े करता है। क्या यह केवल एक जिला-स्तरीय विफलता है या फिर राज्य सरकार की योजनाओं में नियोजन और निष्पादन की कमी का उदाहरण? क्या सामाजिक और सांस्कृतिक वास्तविकताओं को नजरअंदाज करने की कीमत नीरा परियोजना को चुकानी पड़ी? और सबसे बड़ा सवाल कि क्या सरकार इस विफलता से सबक लेकर भविष्य में ऐसी योजनाओं को बेहतर ढंग से लागू कर पाएगी?









