बिहारशरीफ (नालंदा दर्पण)। नालंदा जिले के शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में करोड़ों की लागत से लोहिया स्वच्छ बिहार अभियान के तहत बने बने सामुदायिक शौचालय आज उपयोग में नहीं आ रहे हैं। कहीं ताले लटक रहे हैं तो कहीं ताले तक नहीं बचे, कई स्थानों पर शौचालय की सीटें और दरवाजे तक उखड़ गए हैं।
सामुदायिक शौचालय निर्माण पर प्रति शौचालय लगभग दो लाख चालीस हजार रुपये खर्च किए गए थे। इस योजना के तहत महादलित टोला को प्राथमिकता देते हुए सामुदायिक शौचालयों का निर्माण कराया गया था। प्रत्येक शौचालय में दो पुरुषों और दो महिलाओं के लिए चार सीटों की व्यवस्था की गई थी।
निर्माण के दौरान इनमें पानी की टंकी लगाने की बात कही गई थी। जिससे सात निश्चय योजना के तहत नल जल योजना से जलापूर्ति हो सके। इन शौचालयों का उद्देश्य गांवों को खुले में शौच मुक्त बनाना था और भूमिहीन महादलित व दलित परिवारों को इसका लाभ मिलना था।
सरकार द्वारा लगभग सात करोड़ 20 लाख रुपये खर्च कर 249 पंचायतों में सामुदायिक शौचालय बनाए गए थे। लेकिन चार वर्षों के भीतर ही ये शौचालय अनुपयोगी हो गए हैं। कई स्थानों पर ये जर्जर हो चुके हैं और अब इनका उपयोग नहीं किया जा रहा है।
खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) योजना के तहत लोहिया स्वच्छ बिहार अभियान के अंतर्गत इन शौचालयों का निर्माण हुआ था। योजना के तहत 75 से 80 प्रतिशत खर्च सरकार ने और 20 से 25 प्रतिशत निर्माणाधीन समूह के लोगों ने दिया था।
निर्माण के बाद सामुदायिक शौचालयों के रखरखाव और सफाई की जिम्मेदारी उपयोगकर्ताओं पर थी। लेकिन इसकी व्यवस्था कारगर नहीं हो सकी। नतीजतन कई शौचालयों में गंदगी और दुर्गंध फैल गई। जिससे लोग इनका उपयोग करने से बचने लगे।
अब सवाल उठता है कि प्रशासन का खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) अभियान कितना सफल रहा? करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद अगर शौचालय अनुपयोगी साबित हो रहे हैं तो यह सरकारी धन की बर्बादी नहीं तो और क्या है? स्थानीय प्रशासन और पंचायत समितियों की उदासीनता इस स्थिति के लिए कितनी जिम्मेदार है। यह भी जांच का विषय है।
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