नालंदा दर्पण डेस्क। बीते 26 जनवरी को गुमनामी की जिंदगी जी रहे नालंदा के कपिलदेव प्रसाद अचानक चर्चा में आ गए हैं। 74वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति द्वारा देश के सर्वोच्च सम्मान पद्मश्री देने की घोषणा की गई। वे पद्मश्री पुरस्कार पाने वाले नालंदा के पहले शख्स हैं।
लगभग 70 साल की उम्र में टेक्सटाइल के क्षेत्र में उन्हें पद्मश्री सम्मान देने की घोषणा की गई है। कपिलदेव प्रसाद करीब 6 दशक से बुनकरी से जुड़े हैं। उनके दादा शनिचर तांती ने इसकी शुरुआत की थी। फिर पिता हरि तांती ने इस हुनर को आगे बढ़ाया। जब वे 15 साल के थे, तब बुनकरी को रोजगार बनाया। अब उनका बेटा सूर्यदेव सहयोग करता है।
सरकारी बुनकर स्कूलः 60 के दशक में बिहार शरीफ स्थित नवरत्न महल में सरकारी बुनकर स्कूल खुला था। यह स्कूल हाफ टाइम था। जहां नियमित पढ़ाई जारी रखते हुए बच्चे बुनकरी का इल्म सीख जाते थे। 1963 से 65 तक यहीं बुनकरी सीखी। 1990 में स्कूल बंद हो गया।
जीआई टैग की उम्मीदः पद्मश्री सम्मान की घोषणा के बाद कपिलदेव प्रसाद ने कहा कि यह सम्मान पाकर वह काफी खुश हैं। यह सम्मान सिर्फ उनका नहीं बल्कि हर उन लोगों का है जो हस्तकरघा से जुड़े हुए हैं।
उन्होंने कहा कि इस सम्मान के साथ नालंदा की पहचान जुड़ी है। इस सम्मान से मुझे उम्मीद जगी कि इसे जल्द ही जीआई टैग मिलेगा, जिससे हस्तकरघा को और बढ़ावा मिलेगा।
यही नहीं, इससे लोगों की उम्मीद बढ़ीं, जिससे रोजगार के साथ डिमांड और इनकम का भी सृजन होगा। आज गणतंत्र दिवस के मौक़े पर जिलाधिकारी ने कार्यालय में बुलाकर पुष्पगुच्छ और शॉल भेंट कर कपिलदेव प्रसाद को सम्मानित भी किया गया।
बावन बूटी से मिली पहचानः ‘बावन बूटी’ में कमल का फूल, बोधि वृक्ष, बैल, त्रिशूल, सुनहरी मछली, धर्म का पहिया, खजाना, फूलदान, पारसोल और शंख आदि चिह्न मिल जाएंगे। ये सभी बौद्ध धर्म के प्रतीक होते हैं।
इस कला से सजी साड़ियां, चादर, शॉल, पर्दे आदि आपको बाजार में मिल जाएंगे। इनकी लोकप्रियता भारत के अलावा जर्मनी, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया तक फैली हुई है। इसके अलावा बौद्ध धर्म मानने वाले देशों में भी आपको इस कला के नमूने मिल जाएंगे।
वर्षों से इस कला को करने वाले कारिगरों को कभी भी न तो राज्यस्तर पर बहुत सराहना मिली न विश्वस्तर पर। मगर देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बावन बूटी से बने परदों को राष्ट्रपति भवन में जब लगवाया तो लोगों को इस कला के बारे में परिचय मिला। अब तो इस कला को यूनेस्को भी बढ़ावा दे रहा है।
बासवन बिगहा के हैं कपिलदेव प्रसादः कपिलदेव प्रसाद का जन्म 1954 में हुआ है। हस्तकरघा उनका खानदानी पेशा रहा है। उनके दादा भी हस्तकरघा के जरिए बावन बूटी साड़ी बनाते थे और बाद में पिता ने भी यही धंधा अपनाया था।
पिछले 60 वर्षों से वे लगातार हस्तकरघा से जुड़े रहे और अब इस कार्य में उनका एकलौता पुत्र भी हाथ बंटाता है। नालंदा जिला मुख्यालय बिहार शरीफ से 3 किलोमीटर पूरब उत्तर स्थित एक छोटा सा टोला है बासवन बिगहा।
बासवन बिगहा गांव से आते हैं कपिलदेव प्रसाद। कपिलदेव ने बावन बूटी साड़ी के जीआई टैग के लिए आवेदन भी दिया है। वे कहते हैं कि बावन बूटी साड़ी को जीआई टैगिंग मिलने से इसकी पहचान नालंदा से जुड़ेगी।
बावन बूटी का इतिहासः हस्तकला की बावन बूटी साड़ी का इतिहास बौद्ध काल से जुड़ा रहा है। तसर और कॉटन के कपड़ों को हाथ से तैयार कर इसमें बावन बूटी की डिजाइन की जाती है। यह बावन बूटी बौद्ध धर्म से जुड़ा है। बावन बूटी साड़ी में बौद्ध धर्म की कला को उकेरा जाता है।
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