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    Monday, October 7, 2024
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      प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस में ब्राह्मणों की भूमिका का सच

      नालंदा दर्पण डेस्क / मुकेश भारतीय।  नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं शताब्दी में हुई थी और यह भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के सबसे प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में से एक माना जाता था। इस विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्मशास्त्र, विज्ञान, गणित और दर्शनशास्त्र के क्षेत्रों में उच्च स्तरीय अध्ययन और अनुसंधान को प्रोत्साहित करना था। नालंदा विश्वविद्यालय में पठन-पाठन की परंपरा और स्वतंत्र सोच को इतना महत्व दिया जाता था कि यह शिक्षा का मक्का कहलाने लगा था।

      नालंदा से जुड़ा प्राचीन तत्व विज्ञान, चिकित्सा, गणित और तर्कशास्त्र जैसे विषयों का भी गहन अध्ययन होता था। इसके साथ ही यह विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म और संस्कृत साहित्य के अध्ययन का महत्वपूर्ण केंद्र था। ऐसे ही विविध विषयों के अध्ययन और अनुसंधान ने इसे शिक्षा जगत में एक अनोखी पहचान दिलाई थी।

      संस्थान की विशाल पुस्तकालय की प्रतिष्ठा भी उल्लेखनीय थी, जिसमें हजारों पांडुलिपियाँ और महत्वपूर्ण ग्रंथ संग्रहित थे। ये ग्रंथ और पांडुलिपियाँ न केवल भारत, बल्कि चीन, कोरिया, जापान, तिब्बत एवं श्रीलंका जैसे देशों के शोधकर्ताओं के लिए भी आकर्षण का केंद्र थे। नालंदा का महत्व इस बात से भी स्पष्ट होता है कि यह विभिन्न देशों के विद्यार्थियों के बीच सद्भाव और ज्ञान के आदान-प्रदान का एक मंच बन गया था।

      इस विश्वविद्यालय के बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों ने विभिन्न विषयों में अपने अद्वितीय योगदान के जरिए पूरे विश्व में ख्याति अर्जित की। उन्होंने न केवल ज्ञान का प्रसार किया, बल्कि इसका व्यावहारिक मूल्य भी साबित किया। इनके अनुसंधान और लेखन ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सभ्यताओं पर भी गहरा प्रभाव डाला और प्राचीन भारत में शिक्षा और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनकर शिक्षा के वैश्विक परिदृश्य में अपनी विशेष पहचान बनाई थी।

      नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश का ऐतिहासिक पृष्ठभूमिः नालंदा विश्वविद्यालय, जिसकी स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में हुई थी, प्राचीन समय का एक महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्र था। इसका विनाश 12वीं शताब्दी के अंत में हुआ, जिसका प्रमुख कारण बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में होने वाला आक्रमण था।

      बख्तियार खिलजी, जो अफगान मूल का था, उसने बिहार पर आक्रमण किया और नालंदा विश्वविद्यालय को निशाना बनाया। इस आक्रमण का उद्देश्य मुख्य रूप से भारतीय सभ्यता के ज्ञान और विज्ञान के केंद्र को नष्ट करना था। 1193 ईस्वी के इस आक्रमण में विश्वविद्यालय को भीषण हानि पहुँची और उसकी विशाल पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया गया। यह घटना भारतीय सांस्कृतिक धरोहर पर एक गंभीर आघात थी।

      इतिहासकारों का मानना है कि इस ध्वंस का मुख्य कारण धार्मिक और सांस्कृतिक संघर्ष था। बौद्ध धर्म, जो नालंदा विश्वविद्यालय का मुख्य केंद्र था, उस समय भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख धर्मों में से एक था। इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा बौद्ध धर्म को समाप्त करने का प्रयास किया गया, क्योंकि वह उनके धार्मिक और राजनीतिक विस्तार में बाधा माना जा रहा था।

      इसके अलावा नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश में स्थानीय राजनीतिक अस्थिरता और साम्राज्यों के आपसी संघर्षों की भी भूमिका रही। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद स्थानीय शासकों के बीच लगातार संघर्ष होते रहे, जिससे विश्वविद्यालय की सुरक्षा कमजोर हो गई थी। इन सभी कारणों ने मिलकर नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस को अनिवार्य बना दिया। जिसका विनाश न केवल एक शिक्षा केंद्र का नुकसान था, बल्कि संपूर्ण भारतीय सांस्कृतिक और ज्ञान की धरोहर पर एक अमिट धब्बा था।

      नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस में ब्राह्मणों की भूमिका पर विवाद और साक्ष्यः  नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश को लेकर ब्राह्मणों की भूमिका पर लंबे समय से विवाद और बहस होती रही है। ऐतिहासिक संदर्भों और आधुनिक अध्ययन दोनों से प्राप्त जानकारी को लेकर भिन्न मत उपस्थित होते हैं। अगर हम इतिहास में गहराई से जाएं तो विभिन्न विद्वानों और इतिहासकारों की राय इस मुद्दे पर बंटी हुई दिखाई देती है।

      ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय के नाश के पीछे मुख्य रूप से तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी का नाम आता है। इसलिए विद्वानों का एक वर्ग यह मानता है कि तुर्क आक्रमणकारियों ने अपने सांस्कृतिक और धार्मिक उद्देश्यों को पूरा करने हेतु नालंदा को नष्ट किया। उनके अनुसार ब्राह्मणों को दोष देना तर्कसंगत नहीं है, क्यूंकि पुरातात्विक और बाकित ऐतिहासिक स्रोत इस बात का पूरजोर सबूत नहीं देते।

      दूसरी ओर नालंदा विश्वविद्यालय के नाश के पीछे ब्राह्मणों की भूमिका के पक्ष में बात करने वाले भी कई विद्वान मौजूद हैं। उन्होंने सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनैतिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए ब्राह्मणों पर आरोप लगाए हैं। इन्हें एक वर्ग कहते हैं कि ब्राह्मणों ने अपने धार्मिक आदर्शों और सत्ता संतुलन को बनाए रखने के उद्देश्य से भिन्न-भिन्न तरीकों से मतदानीय और सामाजिक विरोध पैदा किए। कुछ निर्गमित हदीसें और अन्य तटस्थ स्रोत सदियों बाद इस मुद्दे पर पहुंचे निष्कर्षों के आधार माने जा सकते हैं।

      यह विवाद सिर्फ ऐतिहासिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से भी देखने योग्य है। जहाँ एक ओर कुछ दृष्टिकोण में धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतिरोध को मुख्य कारण माना गया है। वहीं दूसरों ने इसे राजनैतिक उद्वेलनों के संदर्भ में देखा है। कुछ अध्येताओं का मानना है कि बृहत सांस्कृतिक और राजनीतिक कारकों ने नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश को और भी जटिल एवं विषम बना दिया।

      इस प्रकार ब्राह्मणों की नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश में भूमिका पर विवाद और साक्ष्य जटिल और विषम बने हुए हैं। यह एक ऐतिहासिक पहेली है जिस पर विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से प्रकाश डाला है। इस विवाद को समझने के लिए एक समग्र, समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है जिसमें ऐतिहासिक साक्ष्य, सांस्कृतिक संदर्भ और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य सम्मिलित हो।

      नालंदा विश्वविद्यालय के विध्वंस के निष्कर्ष और वर्तमान दृष्टिकोणः  नालंदा विश्वविद्यालय के विनाश में ब्राह्मणों की कथित भूमिका पर किए गए अध्ययन और शोध ने कई महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास में नालंदा विश्वविद्यालय के पतन के विभिन्न कारणों का अध्ययन किया गया है, जिसमें विदेशी आक्रमण, आंतरिक राजनैतिक अस्थिरता और अन्य सामाजिक-धार्मिक कारणों को बड़ी भूमिका दी गई है। ब्राह्मणों की भूमिका का मुद्दा विवादास्पद तो है, लेकिन ऐतिहासिक तथ्यों और प्रमाणों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस विनाश में ऐसे किसी एकल समूह को दोषी ठहराना कठिन है।

      वर्तमान समय में नालंदा विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक धरोहर का अध्ययन करना और उसे समझना अति महत्वपूर्ण है। इसके विनाश के कारणों का विश्लेषण केवल इतिहास के प्रति हमारी समझ को गहन बनाने में सहायक नहीं है, बल्कि यह वर्तमान समाज में सांस्कृतिक और शैक्षिक धरोहरों के महत्व को भी उजागर करता है। आधुनिक समाज में इस घटना के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को जानने से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि इतिहास के किसी भी पहलू को एकतरफा दृष्टिकोण से देखना कितना नुकसानदायक हो सकता है।

      बहरहाल, इस विषय पर एक सकारात्मक संवाद स्थापित करना आवश्यक है, ताकि इतिहास की विविधता और उसकी सजीवता को सुरक्षित रखा जा सके। नालंदा विश्वविद्यालय का उदाहरण हमें यह सिखाता है कि शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्थानों की सुरक्षा और उनके प्रति सम्मान का भाव रखना कितना अनिवार्य है।

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