चंडी (नालंदा दर्पण)। ‘घर से कुंआ, फिर कुंआ से घर, सुना है मेरे पूर्वजों की यही कहानी थी’। शायद अब कहानी हकीकत नहीं लगती है। एक कुंआ जिसमें दफन है राहगीरो की प्यास।
वो प्यास जो बुझाती थी, आते-जाते, थके-मांदे मजदूर-किसान की। प्यासो की प्यास, जो देती थी सबको सुकुन! अगर नहीं होता यह कुंआ तो लोगों का क्या होता।
ऐसे ही मीठे जल की एक कुंए की डेढ़ सौ साल से भी पुरानी दास्तां है। चंडी प्रखंड के इस गांव में आज वहीं वह कुंआ बिना शिकवे शिकायत के जर्जर होने के बाबजूद अपने मीठे जल से लोगों की प्यास बुझा रहा है।
कुछ साल पहले तक ग्रामीण इलाकों में पानी का मुख्य स्रोत कुंए ही हुआ करतें थे। पीने के साथ-साथ सिंचाई का मुख्य जरिया भी थी। वहीं हमारी संस्कृति और परंपराओं में भी कुएं की बड़ी महत्ता थी। कई मांगलिक कार्यक्रम भी कुएं के पास होते थे।
लेकिन हर साल भूजल का गिरना और बदलते परिवेश के कारण कुएं अंतिम सांस गिन रहे हैं। कहीं आधुनिकता की चकाचौंध में कुंए खो गये,तो कहीं अतिक्रमण ने लील लिया। सरकार की नल जल योजना का असर भी कुंओ के अस्तित्व पर पड़ा है।
आज की युवा पीढ़ी कुंए से बेखबर है। बिहार सरकार एक तरफ जल जीवन हरियाली मिशन के तहत बचे कुंओ का जीर्णोद्धार करा रही है तो वहीं आज भी कुछ कुंए अपनी बदहाली की गाथा कह रही है।
चंडी प्रखंड मुख्यालय से महज एक किलोमीटर की दूरी पर है दस्तूरपर गांव। जहां एक ऐसा प्राचीन कुंआ है।जिसका पानी आज भी मीठा है। जिसे आसपास में इस कुंए को लोग मिठकी कुंआ के नाम से जानते हैं। यह कुंआ काफी प्राचीन माना जाता है।
कहा जाता है कि 1966 में जब सुखाड़ पड़ा था। तब बहुतों जगह पानी की कमी हो गई थी तब ऐसे में यह कुंआ ही उनका सहारा बना। दस्तूरपर के पड़ोसी गांव जोगिया के ग्रामीण महीनों तक इसी कुंए से पानी ले जाकर अपनी प्यास बुझाते थें।
ग्रामीण बताते हैं कि इस कुंए की लोकप्रियता इतनी थी कि जब आसपास के ग्रामीण इधर से गुजरते तब इस कुंए से पानी पीना नहीं भूलते।
हालांकि ग्रामीण बताने में असमर्थ हैं कि दस्तूरपर का मिठकी कुंआ का निर्माण कब और कैसे हुआ, लेकिन उनका कहना है कि कि 9 जनवरी, 1911 को इस कुंए का सर्वे हुआ था। सर्वे से बहुत साल पहले ही इस कुंए का निर्माण हो चुका था। सर्वे में भी इस बात की चर्चा है कि कुंआ काफी प्राचीन है।
इस कुंए की महत्ता इतनी है कि इसमें सालों भर पानी रहता है। चूंकि इस कुंए की गहराई भी ज्यादा नहीं है। ऐसे में सालों भर पानी रहना और वो भी बिल्कुल ठंडा और मीठा,यह ग्रामीणों के लिए कौतूहल है।
एक समय हुआ करता था, जब गांव में लड़कें-लड़कियों की शादी हुआ करती थी। तब सारी रस्में कुंए पर ही निभाई जाती थी। छठ में खरने के प्रसाद के लिए दूरदराज के लोग इस कुंए का पानी ले जाते थें। लेकिन अब सब बीती बातें हैं।
दस्तूरपर के ग्रामीण नवल प्रसाद बताते हैं कि 1958 से यहां बिजली है उसके बाद खेतों की सिंचाई के लिए लोग ट्यूबवेल पर निर्भर रहने लगे। यही वही दशक था जब कुएं की उपेक्षा होनी शुरू हो चुकी थी। इसी प्राचीन कुंए के पास एक नल लगा है, जो कुंए के अस्तित्व को मुंह चिढ़ा रहा है।
सन् 1954 में केन्द्रीय कृषि विभाग के अन्तर्गत एक्सप्लोरेटरी ट्यूबवेल्स ऑर्गेनाइजेशन (ईटीओ) की स्थापना की गई। वर्ष 1954 में पहली बार टयूबवेल लगाए गए।
1960 तक आते आते टयूबवेल मुख्य धारा में आ गया। सरकार ने भी टयूबवेल लगवाने के लिए खूब पैसा खर्च किया। क्षमता से ज्यादा टयूबवेल लगा दिए गए। वर्ष 1966 में हरित क्रांति का आगाज हुआ। उसके बाद लोगों के बीच पानी की मांग बढ़ने लगी।
ग्रामीण इलाकों में आज भी विभिन्न आयोजनों पर कुंए की पूजा की जाती है। कोई भी जूता-चप्पल पहनकर कुएं पर नहीं जाता था। उस समय खेती के साथ-साथ पीने के लिए कुएं का पानी ही एक माध्यम था। अब समय बदल गया है। कुएं की जगह हैंडपंप और टयूबवेल ने ले लिया है और अब समरसेबल ने ले लिया है।
गांव के एक जागरूक नागरिक और आरटीआई कार्यकर्ता उपेंद्र प्रसाद सिंह का कहना है कि सौ साल से ज्यादा समय से लोगों की अपने मीठे जल से प्यास बुझाने वाली कुंआ खुद उपेक्षित है।
इस कुंए के नाम पर एक कट्ठे की जमीन है। जिसपर प्रखंड के पदाधिकारी चाहे तो कुंए का जीर्णोद्धार करा कर उसकी जमीन पर बाग-बगीचे भी तैयार करा सकते थें। लेकिन नहीं।
अब उन्होंने इस कुंए की महत्ता की जानकारी सीएम नीतीश कुमार को आवेदन देकर इसके जीर्णोद्धार की मांग उठाई है। फिलहाल इस कुंए का भविष्य नालंदा डीएम के रहमो करम पर टिका दिख रहा है।