अन्य
    Sunday, December 22, 2024
    अन्य

      BPSC शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में भाषा की अनिवार्यता खत्म करना सरकारी मूर्खता

      नालंदा दर्पण डेस्क / मुकेश भारतीय। बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) की शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में हिन्दी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता खत्म करने का प्रस्ताव हाल ही में चर्चा का विषय बना है। यह प्रस्ताव शिक्षा प्रणाली और भाषा के प्रति सरकार के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है। इस परिघटना को समझना आवश्यक है, क्योंकि स्थानीय और क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व किसी भी राज्य की सांस्कृतिक और शैक्षणिक पहचान के लिए अति महत्वपूर्ण होता है।

      इस विषय पर समर्पित नालंदा दर्पण का यह विश्लेषण बदलाव के प्रभावों का विश्लेषण करना है। हम यह जानना चाहते हैं कि हिन्दी या किसी अन्य स्थानीय भाषा की अनिवार्यता खत्म करने से शिक्षक योग्यता, छात्र-शिक्षक संवाद और शिक्षा की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ सकता है। इसके अलावा इस नीति परिवर्तन के कारण होने वाले संभावित सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव भी हमारी चर्चा का केंद्र होंगे।

      नालंदा दर्पण के इस आलेख का प्राथमिक उद्देश्य सुझाव और विश्लेषण प्रस्तुत करना भी है, ताकि व्यवस्था के लाभ और हानियों का गहन अध्ययन किया जा सके। शिक्षा क्षेत्र के विभिन्न हितधारक छात्र, शिक्षक, अभिभावक और शैक्षणिक संस्थान इस बदलाव से किस प्रकार प्रभावित होंगे, यह भी हमारी चर्चा का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा। इस संदर्भ में प्रस्तावित बदलाव की समग्रता में जांच-पड़ताल आवश्यक है।

      भाषाई अनिवार्यता का महत्वः

      स्थानीय भाषा या हिन्दी की अनिवार्यता शिक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह केवल संचार का एक माध्यम नहीं है, बल्कि शिक्षकों और छात्रों के बीच एक सांस्कृतिक और भावनात्मक पुल का निर्माण करती है। स्थानीय भाषा की समझ रखने वाला शिक्षक न केवल बच्चों को बेहतर तरीके से समझा पाता है, बल्कि उनके साथ एक संवेदनशील एवं भरोसेमंद रिश्ता भी स्थापित करता है। हिन्दी या स्थानीय भाषा का ज्ञान शिक्षकों को अपनी बात सटीक और प्रभावी तरीके से समझाने में सक्षम बनाता है। शिक्षण में शिक्षा सामग्री का स्पष्ट और सही संप्रेषण सुनिश्चित करना आवश्यक है और यह कार्य स्थानीय भाषा या हिन्दी के माध्यम से सुगम हो जाता है।

      स्थानीय भाषा में शिक्षा प्राप्त करने से छात्रों की प्रशंसा और समझने की शक्ति में वृद्धि होती है। जब शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जाती है तो वे पाठ्यक्रम को सरलता से समझते हैं और उनकी शिक्षा में भागीदारी बढ़ती है। इसके अतिरिक्त, भाषा की अनिवार्यता समाज के विभिन्न तबकों के बीच एकता और सामाजिक सामंजस्य स्थापित करती है। मातृभाषा में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा समाज में समानता और सत्कर्मों को बढ़ावा देती है।

      भाषाई अनिवार्यता न केवल शैक्षिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्व रखती है। भारतीय समाज में विभिन्न भाषाओं का समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक संपदा रही है। जब शैक्षिक संस्थानों में स्थानीय भाषा को अनिवार्य किया जाता है तो वहां के छात्रों में सांस्कृतिक, भाषाई और सामाजिक मूल्यों का संरक्षण और संवर्धन होता है।

      अतः, हिन्दी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता शिक्षकों और छात्रों दोनों के लिए सहायक होती है। यह शैक्षिक गुणवत्ता में सुधार लाने के साथ-साथ समाज को एकजुट रखने और समृद्ध बनाने में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है। इस अनिवार्यता को हटाने का निर्णय शिक्षा जगत और समाज के व्यापक हितों के विपरीत हो सकता है।

      शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रभावः

      शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में भाषा, विशेषकर हिन्दी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता को समाप्त करने के अनेक दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं। भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम नहीं होती, बल्कि यह शिक्षा के गहरे सरोकारों से भी जुड़ी है। शिक्षकों की भाषा पर पकड़ न केवल उनकी शिक्षण क्षमता को प्रभावित करती है, बल्कि विद्यार्थियों के मानसिक विकास पर भी इसका महत्वपूर्ण असर पड़ता है।

      जब शिक्षक और छात्र एक भाषा में सहज रूप से संवाद करते हैं तो ज्ञान का आदान-प्रदान सरलता से होता है। दूसरी ओर यदि शिक्षक उस भाषा में निपुण नहीं है जिसमें छात्र सहज रहते हैं, तो संवाद की गुणवत्ता में गिरावट आ सकती है। स्पष्ट संवाद न होने के कारण अवधारणाओं को समझने में कठिनाई हो सकती है, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

      छात्रों के मानसिक विकास और शिक्षा की गुणवत्ता के लिए भाषा की समझ अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब शिक्षक किसी ‘स्थानिक’ या ‘मां-बोली’ भाषा का उपयोग करते हैं तो छात्र बेहतर तरीके से विषयवस्तु को समझ पाते हैं। ये भाषाएं छात्रों को बचपन से ही सहज होती हैं और इन्हें समाजिक और सांस्कृतिक संरचना में गहराई तक अंतर्निहित होती हैं। इस प्रकार इन भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करना न केवल ज्ञान की प्राप्ति को सरल बनाता है, बल्कि छात्रों के सम्पूर्ण मानसिक विकास को भी बल देता है।

      इसके अतिरिक्त आपसी संवाद में आसानी होने से विद्यार्थियों में आत्मविश्वास बढ़ता है, जिससे उनकी समग्र शैक्षणिक सफलता में भी सुधार होता है। जब शिक्षक छात्रों के साथ उन्हीं की भाषा में बातचीत करता है तो छात्रों को अपनी शंकाओं और समस्याओं को व्यक्त करने में झिझक नहीं होती। इसके फलस्वरूप शिक्षक इन समस्याओं का समाधान अधिक प्रभावी ढंग से कर सकते हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता में निरंतर सुधार हो सकता है।

      अतः यह आवश्यक है कि शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में भाषा की अनिवार्यता बनी रहे, ताकि शिक्षा का समग्र स्तर उच्च बना रहे और छात्रों का मानसिक विकास बाधित न हो।

      संस्कृति और परंपरा पर असरः

      भाषा एक समाज की आत्मा होती है और उसकी संस्कृति एवं परंपराओं का अनिवार्य हिस्सा होती है। जब किसी क्षेत्र की भाषा को प्राथमिकता देने का निर्णय बदला जाता है, तो यह सिर्फ भाषा के स्तर पर नहीं बल्कि उस समाज की संपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर पर प्रभाव डालता है। बिहार में शिक्षक नियुक्ति परीक्षा से हिन्दी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता खत्म करने का निर्णय एक ऐसा कदम है, जिसे सोच-समझ कर उठाना आवश्यक है।

      बिहार राज्य की संस्कृति और परंपराओं में गहरी जड़ें हैं और इनमें भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। जब हम अपनी भाषा को प्राथमिकता नहीं देते, तो यह स्वाभाविक है कि हमारी सांस्कृतिक पहचान कमजोर पड़ने लगती है। स्थानीय भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं होती, बल्कि इसमें समाज की कहानियाँ, लोकगीत, मिथक और रीति-रिवाज भी अन्तर्निहित होते हैं। इससे परहेज करने पर युवा पीढ़ी अपनी जड़ों से दूर हो सकती है।

      वर्तमान में शिक्षकों का नौकरी में चयन सिर्फ उनकी शैक्षिक योग्यता पर नहीं, बल्कि उनके स्थानीय भाषा और संस्कृति के ज्ञान पर भी निर्भर करता है। हिन्दी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता खत्म करने से यह संतुलन बिगड़ सकता है। इससे उन शिक्षकों का आना सम्भव है, जिन्हें प्रदेश की भाषा, संस्कृति और परंपराओं का समुचित ज्ञान नहीं होता। परिणामस्वरूप छात्रों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर से सही तरीके से अवगत कराना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

      इसके अतिरिक्त जब शिक्षक स्थानीय भाषा या हिन्दी में निपुण नहीं होते तो भाषा का प्रसार धीमा पड़ सकता है। यह स्थिति आगे चलकर एक ऐसी समाज में भी परिवर्तित हो सकती है, जहां अपनी भाषा और संस्कृति का सम्मान कम हो जाए। इस प्रकार हिन्दी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता खत्म करना न केवल एक शैक्षिक निर्णय है, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रभाव भी हो सकता है जो आने वाली पीढ़ियों की पहचान और धरोहर पर गहरी छाप छोड़ सकता है।

      भाषाई विविधता और सामाजिक समरसताः

      भाषाई विविधता और सामाजिक समरसता के बीच एक गहरा संबंध होता है। जब किसी समाज में विभिन्न भाषाओं को सम्मान और सहिष्णुता के साथ स्वीकार किया जाता है तो वह समाज में एकता और समरूपता को बढ़ावा देता है। बिहार शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में हिन्दी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता खत्म करने के कदम से भाषाई विविधता को एक बड़ा झटका लग सकता है। यह नीति समाज में विभाजन और तनाव उत्पन्न करने की संभावनाओं को भी बढ़ा सकती है।

      सबसे पहले भाषाई विविधता को समर्थन देने से विभिन्न भाषा-समूहों के बीच संवाद और समझ में सुधार होता है। यह अलग-अलग भाषाई पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को एकजुट करता है और उनके बीच मानसिकता की खाई को कम करता है। हिन्दी और स्थानीय भाषाओं का संरक्षण और प्रोत्साहन सिर्फ भाषा नहीं, बल्कि एक संस्कृति और इतिहास को बचाने का प्रयास है।

      इसके विपरीत जब सरकारी नीतियाँ किसी विशेष भाषा की अनिवार्यता को समाप्त करने का निर्णय लेती हैं तो इससे अलग-अलग भाषाई समुदायों के बीच अविश्वास और अंसार पैदा हो सकता है। इससे ऐसे समुदायों में यह भावना जागरित हो सकती है कि उनकी भाषा, संस्कृति और पहचान को महत्व नहीं दिया जा रहा है। इससे समाज में विभाजन और तनाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

      समाज के हर वर्ग को समान महत्व और सम्मान देना सामाजिक समरसता का एक मूल तत्व है और भाषा यहाँ एक महत्वपूर्ण तत्व बन जाती है। शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में भाषाई विविधता का सम्मान और संरक्षण इसे और भी अधिक प्रभावी बना सकता है। इसलिए, शिक्षा नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे भाषाई विविधता को नजरअंदाज न करें, बल्कि उसे बढ़ावा देने के लिए ठोस कदम उठाएँ। यह न सिर्फ समाज में सामाजिक समरसता को बनाए रखने में सहायक होगा, बल्कि विभिन्न भाषाई समुदायों के छात्रों को समान अवसर प्रदान करेगा।

      छात्रों के पठन-पाठन पर सीधा प्रभावः

      बिहार शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में भाषा, खासकर हिन्दी या स्थानीय भाषा, की अनिवार्यता खत्म करने के निर्णय का छात्रों पर गहरा असर पड़ना अवश्रंभावी है। छात्रों की शिक्षा और सीखने की प्रक्रिया में स्थानीय भाषा की मूलभूत भूमिका होती है। जब शिक्षण की भाषा बदल जाती है तो छात्रों को नई भाषा में शिक्षा पाने में कठिनाई होती है। समुचित भाषा कौशल की कमी से उनकी समझने की क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे उनके शैक्षिक परिणाम कमजोर हो सकते हैं।

      स्थानीय भाषाओं में शिक्षण न केवल शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाता है, बल्कि छात्रों के मानसिक विकास में भी सहायक होता है। इस निर्णय से छात्रों के लिए अपनी सामूहिक पहचान और संस्कृति से जुड़ाव में भी बाधा उत्पन्न हो सकती है। उदाहरण के तौर पर ग्रामीण इलाकों में बच्चे अक्सर केवल अपनी मातृभाषा में ही कुशल होते हैं, जिससे उनकी शिक्षा में किसी भी परिवर्तन का प्रभाव मानसिक और सांस्कृतिक विकास पर भी पड़ेगा।

      इसके अतिरिक्त यह देखा गया है कि जब छात्र अपनी मातृभाषा में पढ़ाई करते हैं तो वे अधिक आत्मविश्वास और स्वतंत्रता के साथ शिक्षण प्रक्रिया में हिस्सा लेते हैं। भाषा की अनिवार्यता हटाने से उनके आत्मविश्वास में कमी आ सकती है, जिससे उनकी सीखने की प्रवृत्ति और मानसिक विकास धीमा पड़ सकता है।

      विभिन्न अध्ययन और अनुसंधान ने भी यह दर्शाया है कि मातृभाषा में शिक्षा प्रारंभिक स्तर पर छात्रों की बुनियादी समझ और आलोचनात्मक सोच को मजबूत करती है। यदि दूसरी भाषा को प्रमुखता दी जाती है तो यह महत्वपूर्ण प्रक्रिया बाधित हो सकती है। एक ऐसा वातावरण बनाना जहाँ मातृभाषा की मान्यता हो, छात्रों की सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है और उन्हें शिक्षा में उत्कृष्टता प्राप्त करने में सहायता करता है।

      रोजगार और प्रतियोगिता पर प्रभावः

      पिछले समय में बिहार शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में हिन्दी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता को हटाने का निर्णय व्यापक चर्चाओं का विषय रहा है। इस नीति का सीधा प्रभाव राज्य के रोजगार बाजार पर देखा जा सकता है। स्थानीय उम्मीदवार, जो अक्सर हिन्दी या स्थानीय भाषाओं में दक्ष होते हैं, इस नीति परिवर्तन से असंतुलित हो सकते हैं। इससे उन्हें न केवल प्रतियोगिता में सहभागी होने का दबाव बढ़ेगा, बल्कि नौकरी पाने की संभावना भी प्रभावित होगी।

      ऐसा मानना है कि इस बदलाव से बाहरी उम्मीदवारों के लिए अवसर बढेंगे, जो सामान्यत: एक सकारात्मक पक्ष के रूप में देखा जा सकता है, किन्तु इससे स्थानीय प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलने के बजाय स्थानीय उम्मीदवार हतोत्साहित हो सकते हैं। विक्षिप्त भाषा नीति से वे उम्मीदवार, जिन्होंने स्थानीय भाषा में शिक्षा प्राप्त की है, उनके लिए अवसरों की संख्या घट सकती है। इसका प्रतिकूल प्रभाव उनके आत्मविश्वास और नौकरी पाने की संभावना पर पड़ेगा।

      अगर हम संघीय सेवाओं और प्रतियोगी परीक्षाओं की बात करें तो हिन्दी या अन्य स्थानीय भाषाओं की जानकारी अक्सर एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में देखी जाती है। बिहार जैसे राज्य में जहां विशाल जनसंख्या हिन्दी बोलने और समझने में सहज है, वहां इस अनिवार्यता के हटने से प्रतियोगी परीक्षाओं में भी असंतुलन देखा जा सकता है। बाहरी उम्मीदवार जो चाहे बेहतर प्रतियोगिता प्रस्तुत कर सकते हैं, किन्तु स्थानीय उम्मीदवारों को उनकी भाषाई योग्यता के आधार पर अन्यथा देखते हुए हटाया जा सकता है।

      कर्थात् भाषा अनिवार्यता की समाप्ति न केवल स्थानीय रोजगार पर, बल्कि संघीय सेवाओं की प्रतियोगी परीक्षाओं में भी एक महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती है। यह आवश्यक है कि ऐसी नीतिगत परिवर्तन सुनिश्चित करते हुए, जो स्थानीय उम्मीदवारों के साथ-साथ अन्य राज्यों के उम्मीदवारों के लिए भी समान अवसर प्रदान कर सके।

      समाधान और सुझावः

      बिहार शिक्षक नियुक्ति परीक्षा में भाषा, खासकर हिंदी या स्थानीय भाषा की अनिवार्यता को समाप्त करने की नीति के विरोध में उपयुक्त और प्रभावी समाधान जरूरी हैं। इस नीति का विरोध प्रबलता से और तर्कसंगत तरीके से किया जाना चाहिए ताकि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो सके और सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिल सके।

      सबसे पहले शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में भाषा अनिवार्यता की पुनर्स्थापना के लिए सामाजिक जागरूकता अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है। शिक्षा से जुड़े सभी हितधारकों- जैसे अभिभावकों, छात्र-छात्राओं और शैक्षिक संस्थानों को इस नीति के संभावित नकारात्मक प्रभावों के बारे में संवेदनशील किया जाना चाहिए। इस प्रकार के जागरूकता अभियान में मीडिया, सामाजिक संगठनों और सामुदायिक नेतागणों की साझेदारी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

      वहीं, नीति निर्माण स्तर पर उचित हस्तक्षेप की आवश्यकता है। इसके लिए स्थानीय विधायकों, सांसदों और शिक्षा मंत्रालय को मामले की गंभीरता और संभावित असरों के बारे में विस्तृत रिपोर्ट और सुझाव प्रस्तुत किए जा सकते हैं। नीतीकारों और विधायकों पर दबाव डालने के लिए याचिकाएं, विरोध प्रदर्शन और सार्वजनिक सभाओं का आयोजन एक कारगर तरीका हो सकता है।

      साथ ही शिक्षकों और विद्यालयों को इसके विकल्प के रूप में प्रशिक्षण और भाषा शिक्षा कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए। इसके अंतर्गत शिक्षकों को स्थानीय भाषा और हिंदी में दक्ष बनाने के लिए उचित प्रशिक्षण प्रदान किया जा सकता है। इससे न सिर्फ नीति का प्रभाव कम होगा बल्कि शिक्षकों की दक्षता और विद्यार्थियों की शिक्षा की गुणवत्ता भी बढ़ेगी।

      LEAVE A REPLY

      Please enter your comment!
      Please enter your name here

      This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

      संबंधित खबर

      error: Content is protected !!
      विश्व को मित्रता का संदेश देता वैशाली का यह विश्व शांति स्तूप राजगीर सोन भंडारः जहां छुपा है दुनिया का सबसे बड़ा खजाना यानि सोना का पहाड़ राजगीर वेणुवन की झुरमुट में मुस्कुराते भगवान बुद्ध राजगीर बिंबिसार जेल, जहां से रखी गई मगध पाटलिपुत्र की नींव