“चंडी में प्राइवेट स्कूल अब विद्यालय नहीं मॉल हो गए है। वहाँ किताबें बिकती है, कपड़े बिकते है, जूते बिकते है, मोजे बिकते है, ट्यूशन के मास्टर बिकते हैं, कुछ स्कूलों में धर्म भी बिकता है, और सबसे अंत में शिक्षा बिकती है। और ये सारे सामान लागत मूल्य से दस गुने मूल्य पर बेचे जाते है। “
नालंदा दर्पण डेस्क। अगर आनंद बख़्शी जिंदा होते तो अपनी गीत की पंक्तियां पतझड़ सावन,वसंत बहार एक बरस के मौसम चार पांचवां मौसम निजी स्कूलों में किताबें, कापी, जूते मोजे,टाई बेल्ट खरीदने का लिख रहे होते। इस देश में दो ही मौसम होते हैं जब मतदाता चुनाव के दौरान तो दूसरा अभिभावक स्कूलों के सत्र बदलने पर लूट मौसम का शिकार होता है। वैसे निजी स्कूलों की शिक्षा धन्य होती है क्योंकि वे अब मणिपाल नहीं बल्कि ‘मनी’पाल बनते जा रहे हैं।
यह हकीकत है देश भर के लगभग सभी निजी स्कूलों की, लेकिन अब ग्रामीण इलाकों में खुले निजी स्कूल भी इसी राह पर जा रहें हैं। वैसे चंडी प्रखंड के लगभग निजी स्कूलों की दशा कमोवेश वहीं है जो देश की है।
चंडी प्रखंड में नये सत्र शुरू होते ही निजी स्कूल किताब की दुकानों में परिवर्तित हो चुका है। अगर कहें कि निजी स्कूल शिक्षा की जगह किताबों के डीलर बनते जा रहे हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
नये सत्र की शुरुआत के साथ ही अभिभावकों की परेशानी बढ़ गई है। एक से दो माह की फीस के साथ स्कूलों में विकास शुल्क के नाम पर ली जाने वाली मोटी रकम भरनी है तो दूसरी तरफ बच्चों के लिए ढेर सारी किताबें भी खरीदनी पड़ रही है। जिससे अभिभावकों की कमर टूट रही है। कापी-किताबों का सेट इतना मंहगा हो चला है कि उसे खरीदने में इस अप्रैल महीने में और ज्यादा पसीना निकल रहा है।
चंडी प्रखंड के निजी में क्लास एक व आठवीं तक की किताबों का सेट स्कूलों के स्टैंडर्ड के हिसाब से छह हजार से नौ हजार रुपए तक आ रहें हैं। उपर से स्कूल बैग,डायरी, ड्रेस, टाई-बेल्ट तथा अन्य समान भी खरीदना पड़ रहा है। जिसकी राशि भी अच्छी खासी पड़ रही है। उधर प्रशासन और शिक्षा विभाग इस लूट पर चुप्पी साधे हुए है।
चंडी प्रखंड के अधिकांश निजी स्कूलों के यहां किताबें खरीदने के लिए अभिभावकों की एक लंबी लाइन देखी जा रही है। स्कूलों द्वारा तय निजी प्रकाशकों की किताबें पांच गुना तक मंहगा है। जितनी शायद बीए और एमए की किताबों के दाम नहीं होंगे।
कहने को तो प्रखंड के अधिकांश निजी स्कूल अपने आप को सीबीएसई पाठ्यक्रम से शिक्षा देने का दावा करती है लेकिन उनके यहां भी एनसीईआरटी की जगह ज्यादातर निजी प्रकाशकों की किताबें चल रही है।
लगभग 80 फीसदी निजी प्रकाशकों की मंहगी किताबें पढ़ाई जाती है। जबकि सरकार ने निर्देश जारी किया है कि सभी स्कूलों में एनसीईआरटी की पुस्तकें पढ़ाई जाएगी। पर शायद ही कोई निजी स्कूल इसका पालन कर रहे हैं।
स्कूलों में हर साल मिलने वाले कई किताबों में तो प्रिंट रेट के ऊपर अलग से प्रिंट स्लिप चिपका कर प्रकाशित मूल्य से ज्यादा वसूल किया जा रहा है। निजी स्कूलों में कमीशन के चक्कर में हर साल किताबें बदलने के साथ अलग-अलग प्रकाशकों की मंहगी किताबें लगाई जाती है।
एनसीईआरटी की 256 पन्नों की पुस्तक का मूल्य 65 रूपये है जबकि निजी प्रकाशक की 167 पन्ने की किताब की कीमत न्यूनतम 305 रूपये पड़ रही है। एनसीईआरटी की किताबों में मात्र 15-20 फीसद ही कमीशन मिलता है। जबकि अन्य प्रकाशकों से 30-40 फीसद तक कमीशन मिलता है।
एक समय था जब प्रखंड के एका -दुका स्कूल को छोड़कर उनकी किताबें शहर के दुकानों में भी मिल जाया करता था। ऊपर से दुकानदार अभिभावकों को10-20 फीसद की छुट भी देते थे लेकिन कुछ सालों में निजी स्कूल भी इस धंधे में उतर गये। क्योंकि उन्हें पता चल गया कि किताबें बेचना कितना मुनाफे का धंधा है।
स्कूलों का सिलेबस हर साल बदल जाता है। लेकिन एनसीईआरटी द्वारा बड़े रिसर्च के साथ बनाया जाता है जो लंबे समय तक स्कूलों में पढ़ाई जाती है। लेकिन सवाल उठता है कि निजी स्कूलों में लागू पाठ्यक्रम का स्टैंडर्ड एक साल में इतना गिर जाता है कि स्कूलों को उसे बदलना पड़ता है।
लेकिन ऐसा नहीं है, पाठ्यक्रम का स्टैंडर्ड तो ठीक ठाक होता है, लेकिन स्कूलों का अपनी कमीशन में कटौती का डर होता है। यदि पुराना सिलेबस लागू किया जाए तो छात्रों को वे सभी किताबें पुराने छात्र या शहर के किताब दुकान से मिल जाएगी। ऐसे में निजी स्कूलों की अवैध कमाई को धक्का लग सकता है। निजी स्कूल इसके पक्ष में नहीं है। स्कूलों द्वारा जो पाठ्यक्रम में बदलाव होता है वह नाममात्र का होता है।
इस क्षेत्र में निजी स्कूलों द्वारा जनता से खुली लूट हो रही है। कोई भी सरकार इस तरफ ध्यान नहीं दे रही है। शिक्षा का स्तर क्या है और वहां किस प्रकार से लूट मची हुई है। स्कूलों और निजी प्रकाशकों की दादागिरी पर प्रशासन भी चुप है। सब अपनी मर्जी से निजी प्रकाशकों की किताबों की लंबी सूची अभिभावकों को थमा रहे हैं।
अभिभावक भी अपने बच्चों के भविष्य के खातिर ज्यादा विरोध नहीं कर पाते हैं। वे जानते हैं कि प्रखंड के लगभग निजी स्कूलों का शगूफा एक ही है। सब लूट में शामिल हैं।
अपने बच्चे के लिए किताब खरीदने आई एक बच्चे की मां ने बताया कि उनका बच्चा इस बार क्लास टू में गया है। उसके लिए लगभग तीन हजार रुपए की किताब खरीदनी पड़ी। जबकि कुछ ऐसी किताबें हैं जो एक दो महीने में ही खत्म हो जाएगी।
निजी स्कूलों में औसतन दस से पंद्रह किताबें चलाई जा रहीं है, बच्चों के बैग में ऊपर से कापियां, डायरी,पानी की बोतल,लंच बॉक्स तथा अन्य सामग्री होती है। वजन इतना हो जाता है कि बच्चे उस बैग के बोझ तले दबे जा रहे हैं। उनकी रीढ़ झुक रही है। लेकिन अभिभावको को इसकी चिंता नहीं सता रही है।
किसी ने सच कहा है कि एक समय सरकारी स्कूल छात्रों के भविष्य निर्माण में टूट गया और आज निजी स्कूलों को बनाने में अभिभावक।
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