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चंडी की वह महान महिला शख्सियत, जो ‘संसद सुंदरी’ से ‘आंधी’ की किरदार बन गई

नालंदा दर्पण डेस्क (जयप्रकाश नवीन)। ज्ञान की धरती नालंदा, भगवान बुद्ध और महावीर की धरती नालंदा जहाँ से देश के कई राजनीति के सशक्त हस्ताक्षर पैदा हुए हैं। उन्हीं में से एक देश की प्रथम महिला केंद्रीय वित्त उपमंत्री रही तारकेश्वरी सिन्हा शामिल हैं।

जिनकी सियासी सफर किसी फिल्म से कम नहीं थी। जिनमें पति-पत्नी और ‘वो’ की कहानी भी थी। विवादों की सियासत भी थी। राजनीति का वो ग्लैमर भी था। एक दौर था जब उनके चाहनेवाले, उनके जलवों के कई मशहूर राजनीतिक हस्तियाँ दीवानी थी।

उनका व्यक्तित्व लोगों के दिलों दिमाग पर राज करती थी। बला कि खूबसूरत, बॉब कट बाल, जहाँ खड़ी हो जाती वहाँ का माहौल बदल जाता। सांसदों और मंत्रियों के बीच उनकी ही दीवानगी देखी जाती थी।

कहा जाता है कि बहुत सारे सांसद और मंत्री संसद सत्र के दौरान अपने क्षेत्र से इसलिए संसद दौड़े चले आते थे, ताकि तारकेश्वरी सिन्हा का दर्शन कर सके। ‘ग्लैमर्स गर्ल्ल’, ‘पार्लियामेंट ब्यूटी’ न जाने कितने नामों से जानी जाती थी।

उन दिनों नेहरू से लेकर लोहिया तक उनकी वाक्पटुता और सुंदरता के कायल थे। तारकेश्वरी के बारे में कहा जाता है कि वह देखने में जितनी खूबसूरत थीं, उतनी ही बेहतरीन वह एक वक्ता के रूप में थीं। लोग अक्सर उन्हें ‘ब्यूटी विथ ब्रेन’ कहते थे।

संसद में जब भी वो भाषण देने या बहस करने उठती तो लोगों की आंख और कान दोनों तारकेश्वरी के हो जाते। यहां तक कि विपक्ष भी उनके शब्दों से घायल हो कर उनकी वाकपटुता का कायल हो जाता।

कहते हैं कि उनकी हिंदी जितनी अच्छी थी उससे कई ज्यादा अच्छी उनकी अंग्रेजी थी और दोनों भाषाओं से भी उम्दा, उनकी उर्दू पर पकड़। कई बार तो वह संसद में बहस के दौरान तंज और तानों को भी उर्दू के मखमली अंदाज में लपेटकर विपक्ष को दे मारती थीं और सब के हांथ वाह–वाह कर टेबल थपथपाते रह जाते थे।

आजाद भारत की संसद में कदम रखते ही जिन्होंने नारी का सशक्त परिचय दिया। देश की प्रथम महिला केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री तथा ‘संसद सुंदरी’ तारकेश्वरी सिन्हा का जन्म 26 दिसंबर 1926 को तब पटना जिला (अब नालंदा) के तुलसीगढ़ गांव में हुआ था।

तारकेश्वरी के पिता डॉ शिवनंदन प्रसाद सिन्हा पेशे से एक सर्जन थे। तारकेश्वरी के दो बहन और एक भाई थे। इनकी प्रारंभिक शिक्षा बड़ौदा में हुई थी। वहीं से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की।

उसके बाद वह वहां से पटना आ गई। मगध महिला कालेज से  वह राजनीति में आ गई। बिहार के छात्र कांग्रेस का उन्हें उपाध्यक्ष बनाया गया।

तारकेश्वरी भारत की पहली ऐसी महिला राजनेता थीं, जो भारत छोड़ों आंदोलन में बड़ी ही सक्रियतापूर्वक भाग लिया था। वह उस समय इंटर में पढ़ती थी। उन दिनों वे पटना के हॉस्टल में रहती थी।

1942 में पटना में सचिवालय पर झंडा फहराना था। विधार्थियों के साथ वे भी सचिवालय चली गईं वहाँ गोली लगने से जब एक नौंवी के छात्र की मौत हो गई तो वहाँ भगदड मच गया। वहाँ से भागकर तारकेश्वरी एक मंदिर में छिप गई। फिर एक शिक्षक के घर पर आसरा ली।

कहा जाता है कि जब भारत विभाजन के दौरान बिहार के नालंदा के नगरनौसा में उन दिनों वहां हिन्दू–मुस्लिम दंगा हो गया था। उस दंगे को रोकने के लिए महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू दोनों नगरनौसा आए थे। चारों तरफ तनातनी का माहौल था और इन सब के बावजूद तारकेश्वरी बापू को लेने नालंदा जिले के नगरनौसा पहुंच गई थी।

इसी बीच उनकी शादी छपरा हो गई। शादी के बाद भी वें आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चली गई जहां उन्होंने ऑक्सफोर्ड से अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की। लेकिन अपने सर्जन पिता की निधन के बाद उन्हें लंदन से वापस आना पड़ा। वापस आने के बाद तारकेश्वरी को अपने ससुराल जाना पड़ गया।

वहाँ से वे कलकत्ता चली गईं, जहाँ अपने पति के साथ गृहस्थी बसाने की तैयारी कर रही थी। एक दिन उनकी मां का पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि चाहो तो चुनाव में खड़ी हो जाओ। उनके मामा की राजनीति में काफी दखल थी। तारकेश्वरी को मां की सलाह पसंद आ गई। मामा ने ही पटना से टिकट का जुगाड किया।

1952 में प्रथम आम चुनाव में पटना से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ी और जीतकर 26 साल की उम्र में संसद पहुँच गई। फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नही देखा।

इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से ही जीत कर वह लगातार लोकसभा सांसद बनी रही।1969 में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ तो तारकेश्वरी सिन्हा ने इंदिरा गाँधी की जगह मोररारजी देसाई का खेमा चुना।

यही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि उसी दिन से भारतीय राजनीति में उनकी सियासी पारी का अंत हो गया।

1971 में तारकेश्वरी सिन्हा बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से (कांग्रेस संगठन) चुनाव मैदान में थी। उनके सामने धर्मवीर सिंह थे। कहा जाता है कि तब रामलखन सिंह यादव कांग्रेस के दिग्गज नेता हुए करते थे।

पीएम इंदिरा गाँधी ने रामलखन सिंह यादव के सामने अपना आंचल फैला दिया था। रामलखन सिंह यादव ने इंदिरा गांधी की उस आंचल की लाज बचा ली थी। बाढ़ लोकसभा से धर्मवीर सिंह की जीत से इतनी खुश हुई कि उन्होंने धर्मवीर सिंह को कैबिनेट में जगह देकर सूचना एवं प्रसारण मंत्री बना दिया।

बाद  में वह कांग्रेस में वापस आ गई। 1977 में उन्होंने बेगूसराय से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा, लेकिन कांग्रेस विरोधी लहर में वह जीत नहीं सकीं। 1978 में जब बिहार के सीएम कपूर्री ठाकुर ने समस्तीपुर सीट छोड़ी तो तारकेश्वरी सिन्हा वहाँ से चुनाव लड़ी, लेकिन हार गई।

मोरारजी देसाई के काफी करीब रही तारकेश्वरी को 1977 में मोरारजी देसाई का भी साथ नहीं मिला। 1978 के बाद से धीरे धीरे वह राजनीतिक नेपथ्य में चली गईं। अपने 19 साल के राजनीतिक जीवन में तारकेश्वरी कभी इतनी नहीं टूटी थी, जितनी वह उन कुछ सालों में टूट गई थी। फिर उन्होंने राजनीति से अपने आप को बिल्कुल अलग कर लिया।

राजनीति हो या भाषा हो या अर्थशास्त्र, सब पर उनकी गजब पकड़ थी। शायद इसी को देखते हुए 1958 में नेहरू ने उन्हें वित्त मंत्रालय का कार्यभार सौंप कर भारत की पहली महिला उप वित्त मंत्री बनने का मौका दिया था।

दरअसल, तारकेश्वरी इंदिरा के पिता पंडित नेहरू और पति फ़िरोज गांधी दोनों के ही बहुत करीब थी। इसके अलावा तारकेश्वरी सिन्हा बाद के सालों में वित मंत्री मोरारजी देसाई के काफी करीब आ गई थी।

तभी तो कहा जाता है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद तारकेश्वरी सिन्हा प्रधानमंत्री नाम को लेकर लालबहादुर शास्त्री की जगह मोरारजी देसाई को पीएम बनाने की मुहिम छेड़ रखी थी।

राजनीतिक पंडित मानते थे कि नेहरू के बाद एक तारकेश्वरी का ही कद कांग्रेस पार्टी में इंदिरा से बड़ा था। भले ही मोरारजी देसाई भी कांग्रेस के आला नेताओं में थे, पर इंदिरा और तारकेश्वरी में उन्होंने भी सदा तारकेश्वरी को ही चुना।

‘संसद सुंदरी’ तारकेश्वरी सिन्हा का अपने मायके तुलसीगढ़‌ के विकास के लिए उल्लेखनीय योगदान रहा है। उनके भाई कैप्टेन गिरिश नंदन सिंह की मौत शादी के कुछ महीने बाद ही एक  हवाई दुर्घटना में हो गई थी। उनके भाई की कोई संतान नहीं थी।

उन्होंने अपने पिता डॉ शिव नंदन‌ सिन्हा और भाई कैप्टेन गिरिश नन्दन सिंह की स्मृति में तुलसीगढ़ में ही एक अस्पताल डॉ शिवनंदन प्रसाद सिंह कैप्टेन गिरिश नंदन सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल का निमार्ण ट्रस्ट के द्वारा किया।

23 दिसम्बर,1981 को पांच सदस्यीय एक ट्रस्ट का निर्माण की। इस अस्पताल के निर्माण के लिए उस समय लगभग 25 लाख रूपए जमा किये गये थे। 1984 में तत्कालीन उधोग मंत्री ललितेश्वर शाही ने अस्पताल की नींव रखी थी। इस अस्पताल के बन जाने से आसपास के दो दर्जन गांवों के लोगों को स्वास्थ्य का लाभ मिलने लगा था।

लेकिन बाद में उपेक्षा और ट्रस्ट की खींचतान में अस्पताल दम तोड़ने लगा।अब अस्पताल जीर्ण शीर्ण अवस्था में है। तारकेश्वरी सिन्हा ने अपने गांव में डाकघर का भी निर्माण करवायी।साथ ही उन्होंने अपने गांव को सड़क मार्ग से जोड़ा।

तारकेश्वरी सिन्हा के जीवन पर बनी थी ‘आंधी’

1975 में मशहूर गीतकार गुलजार ने कमलेश्वर की कहानी पर एक फिल्म बनाई थीं। जिसका नाम उन्होंने ‘आंधी’ रखा था। इस फिल्म में एक होटल मैनेजर को एक राजनेता की बेटी से प्यार हो जाता है, बाद में दोनों शादी कर लेते हैं। बाद में दोनों की जिंदगी में तकरार और मतभेद आ जाता है, वे अलग हो जाते हैं।  अर्से बाद फिर से दोनों की मुलाकात होती है। मिलने पर दोनों रिश्ते को फिर से मौका देने का फैसला करते हैं।

इस फिल्म में संजीव कपूर और सुचित्रा सेन की मुख्य भूमिका थी। जिसके बारे में चर्चा रही कि उक्त फिल्म इंदिरा गाँधी और उनके पति फिरोज गांधी के पारिवारिक जीवन पर बनी थी।

लेकिन फिल्म के निर्देशक गुलजार ने कभी लिखा था कि यह फिल्म तत्कालीन केंद्रीय मंत्री तारकेश्वरी के जीवन पर आधारित थी।

गुलजार का कहना है कि 1969-71 के बीच तारकेश्वरी सिन्हा उनके शहर लुधियाना आई थी। उनके साथ वित्त मंत्री मोरारजी देसाई और लिंगिपा भी थे। इन दो सालों में गुलजार उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हुए।

बाद में प्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर ने उनके जीवन पर कहानी लिखी, जिसे गुलजार ने निर्देशित किया था। 1975 में आपातकाल के दौरान बनी फिल्म ‘आंधी’ को रिलीज का आदेश नहीं मिला, लेकिन जब 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार आई तो यह फिल्म 1978 में रिलीज हुई और इसकी खूब चर्चा भी सियासी गलियारे में रही।

तारकेश्वरी सिन्हा कहा करती थी कि वे लोग जनता के सही मायने में सेवक हुआ करते थे। हमने पैसा कमाने के लिए कभी सोचा ही नहीं। लोगों की नजरों से गिरकर नहीं सम्मान पाकर ही जीना सबसे बड़ा मकसद था। लोक सेवा सही मायनों में जनसेवा ही हुआ करती थी।

देश की प्रथम महिला केंद्रीय वित्त मंत्री तारकेश्वरी सिन्हा कभी ग्लैमरस राजनीतिज्ञ रही। लेकिन जीवन के आखिरी 29 साल वह गुमनामी में खोयी रही। 14 अगस्त, 2007 को उनका जब निधन हुआ, तो कोई जान भी नहीं सका कि कभी संसद की ‘ब्यूटी एमपी’ अब नहीं रहीं। अस्ताचल की ओर जाते हुए सूर्य की तरह हमेशा के लिए अतीत हो गई।

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